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समय के प्रवाह में मील का पत्थर : अनुकरण-सिद्धान्त और काव्य

डॉ. साधना गुप्ता
काव्यशास्त्र के अथाह सागर में प्रवेश कर सामयिक परिप्रेक्ष्य में अनुसंधान के नवीन विषयों को खोजना और उन पर लेखनी चला सहज-सरल भाषा में सहृदय सामाजिक के समक्ष प्रस्तुत करना, अत्यन्त श्रमसाध्य कार्य है ऐसे श्रमसाध्य विषय को अपने जीवन का ध्येय बनाकर अध्ययन, अध्यापन एवं लेखन के प्रति सतत समर्पित व्यक्तित्व डॉ. मथुरेशनन्दन कुलश्रेष्ठ की दसवीं कृति के रूप में मेरे समक्ष है - ‘‘अनुकरण सिद्धान्त और काव्य‘’। 
केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय से 2018 में पुरस्कृत यह कृति चार खण्डों में विभक्त है। भारतीय काव्यशास्त्र में जो स्थान ‘रस’ का रहा है पाश्चात्य काव्य शास्त्र में वही महत्व ‘अनुकरण सिद्धान्त’ का है। देश-काल की सीमाओं से परे मानव मात्र के मूल भाव समान रहते हैं। प्रिय का विछोह हर स्थिति में दुःखद ही होता है, सुई की चुभन सभी के लिए पीड़ा दायी ही होती है। अतः काव्य के विषय में यह प्रश्न विचारणीय रहे हैं कि काव्य का उद्देश्य रस है या अनुकरण तथा काव्य निर्माता कवि का क्या स्थान है। प्रस्तुत पुस्तक सांस्कृतिक विकास के उत्कर्ष के प्रतीक काव्य में अनुकरण सिद्धान्त को आधार बनाकर इन्हीं प्रश्नों का युक्तिसंगत समाधान प्रस्तुत करती है। 

प्रथम खण्ड ‘‘अनुकरण-वृत्ति और उसकी व्याप्ति’’ में अनुकरण शब्द की भाषा-वैज्ञानिक उत्पत्ति, अनुकरण के तीन पक्ष अनुकार्य, अनुकरण, अनुकृति और इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को सम्पन्न करने वाले अनुकर्ता का उल्लेख कर विषय प्रवर्तन किया है। इस विवेचन में अनुकरण की आदिम वृत्तियों से भिन्नता दिखाकर अनुकरण को मनोविज्ञान, राजनैतिक स्थायित्व एवं नव निर्माण के आधार के रूप में जीवन की सहज गति माना हैं लेखक का मन्तव्य है - ‘‘अनुकरण नितान्त निर्जीव यान्त्रिक प्रक्रिया नहीं है। अनुकार्य को निर्धारित करते समय हमारी चेतना उसके गुण-दोष का विश्लेषण करती है। हमारी अन्तश्चेतना आश्वस्त होने के बाद ही अनुकरण प्रक्रिया में प्रवृत्त होती है। हाँ, अन्तश्चेतना के इस निर्णय में उसके वातावरण, मानसिक विकास, व्यक्तित्व की विशेषताओं और महत्वाकांक्षा की भी महती भूमिका रहा करती है।(पृ.21) अनुसंधान की साधना पूर्ववर्ती ज्ञानराशि के अनुकरण से होकर ही अपना रास्ता तय करती है अतः विज्ञान के क्षेत्र में इसकी आवश्यकता व दुष्परिणामों की ओर संकेत किया है वहीं खेल के मूल रूप अनुकरण को स्वीकृति देते हुए खेल में प्राप्त विजय के भाव को वास्तविक जीवन में विजय नहीं, विजय का अनुकरण के माध्यम से अभ्यास बताकर एक नवीन दृष्टि दी है। साथ ही ऐतिहासिक क्रम में स्पष्ट किया कि यह एक कला सिद्धान्त के रूप में प्लेटों से पूर्व भी था, प्लेटों ने इसे दार्शनिक आधार दिया। इससे भी पूर्व भारत में ‘नाट्यशास्त्र’ (भरत मुनि) में नाटक की प्रकृति के प्रसंग में इसके उल्लेख की बात कर पाश्चात्य जगत के एकाधिकार को अस्वीकार किया है। 

द्वितीय खण्ड ‘‘काव्य और अनुकरण सिद्वान्त (पाश्चात्य जगत)’’ में पाश्चात्य जगत में एक सिद्धान्त के रूप में स्वीकृत, रोमी और यूनानी काव्य शास्त्रियों का समर्थन प्राप्त अनुकरण सिद्धान्त के विवेचन का प्रारम्भ ‘‘डैमौक्रिटस’’ (460वीं सी) के चिन्तन को वाणी देते हुए किया है। इनके मत में कला और बुद्धि की प्राप्ति सीखने से होती है परन्तु कवि दैवी आवेश से प्रेरित होता है और सौन्दर्य की अनुभूति से अपार आनन्द मिलता है, इस आधार भूमि पर प्लेटो के मत की विस्तृत विवेचना करते हुए लेखक ने प्रायः सभी महत्वपूर्ण बिन्दुओं को विस्तार से वाणी दी है। 

प्लेटो के अनुसार कवि अनुकार्यो का कोई सत्य ज्ञान नहीं रखता। चूंकि ईश्वर ही विचारों का स्त्रोत है अतः विश्व की प्रत्येक वस्तु का मूल सृष्टा वही है। त्रासदीकार अनुकरण कर्ता है और सत्य से तीसरे स्थान पर अतः हेय है। होमर के महाकाव्यों ‘इलियट’ और ‘ओडेसी’ के माध्यम से सिद्ध किया है कि कवि देवताओं, महापुरूषों और यौद्धाओं को ऐसे पतित रूप में प्रस्तुत करता है जो नवयुवकों के चरित्र पर बुरा असर डालता है, अश्रद्धा जगाता है जबकि देवता सदैव शुद्धतम आदर्श चरित्र से युक्त शिव रूप होते हैं। ठीक इसी प्रकार वह अच्छे सच्चरित्र, सत्यवादी मनुष्यों को अधिकांशत जिस प्रकार दुर्भाग्यशाली रूप में, कठिनाइयों में और दुष्टों, चरित्रहीनों को आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करते चित्रित करने के साथ अन्याय का प्रस्तुतिकरण इस प्रकार करते हैं कि यदि पता न चले तो मानों वह लाभकारी ही है, यह चित्रण नवयुवकों के चरित्र को भ्रष्ट करता है। जिन परिस्थिति में त्रासदी के नायक का पतन दिखाया जाता है, उससे उनके प्रति करूणा व दया भाव जाग्रत होते हैं परन्तु स्वयं उन परिस्थितियों में होने पर दर्शक दृढ़ता के साथ उसका सामना करना चाहता है अतः काव्य द्वारा नवयुवकों की शक्ति का हास होता है। ये कथाएँ उसे सीखाती है - अच्छाई का परिणाम बुरा और पाप का परिणाम भला भी हो सकता है। देवताओं को घूँस भी दी जा सकती है। वे पापों को तुरन्त क्षमा कर देते हैं। अतः राज्य को अप्रसन्नता व दुःख से मुक्त रखने हेतु वह कवि को प्रतिभा सम्पन्न और चमत्कारिक शक्तियों से युक्त मानते हुए भी आदर्श राज्य में स्थान नहीं देता। इसीलिए वह अभिनय में भाग लेने के सम्बन्ध में भी संतुलित, पवित्र, स्वतन्त्र चरित्रों के अनुकरण की बात कहता है जिससे उसका ज्ञान अभिनेता के जीवन पर कल्याणकारी प्रभाव डाल सके। वह अभिनय की शैलियों का निर्धारण सरल-जटिल में कर आदर्श नगर के लिए सरल शैली को सही मानता है सामान्यतः प्लेटों को कवि के घोर विरोधी के रूप में चित्रित किया जाता है परन्तु लेखक ने अपनी नीर क्षीर विवेकी शक्ति से पूर्ण सत्य को उजागर कर प्लेटों के मत के दूसरे पक्ष का भी विवेचन किया है। जिसके अनुसार कवि से उसका कोई द्वेष नजर नहीं आता। वह उदारता से यह घोषणा करता है -‘‘जब कभी कवि का पक्ष अपने ऊपर लगाये आरोपों का खण्डन कर देगा तो उसे आदर्श राज्य में स्थान दे दिया जायेगा।(पृ45) वह ईश्वर भक्ति, देशभक्ति तथा मानवीय गुणों की कविता कर देवताओं और मनुष्यों को सही रूप में अंकित करने वाले, नवयुवकों में दृढ़ता लाने वाले काव्य को जन्म देने वाले कवि को आदर्श राज्य में स्थान देने के लिए तैयार है। परन्तु साथ ही ऐसे काव्य पर विधान निर्माताओं के कठोरतम नियन्त्रण की घोषणा व नियमों का निर्धारण भी करता है। प्लेटों काव्य उत्पत्ति में दैवी प्रेरणा को स्वीकार करता है - ‘‘कवि अपने गीतों को मधु के फव्वारों से लेकर आते हैं’’, उसके सिद्धान्त से मेल नहीं खाता। वह देवी शक्ति से प्रभावित होने वालों में कवि को सर्वप्रथम कड़ी, श्रोता को अन्तिम कड़ी और गायक और व्याख्याता को मध्य कड़ी मानते हैं। 

लेखक ने इस ओर भी ध्यान दिलाया है कि प्लेटो काव्यशास्त्री नहीं, दार्शनिक थे और उसके समक्ष समाज व्यवस्था का ही प्रश्न सर्वप्रमुख था अतः वह काव्य को सृजन न मानकर चरित्र निर्माण में सहायक अनुकरण मानता है। उसका सामाजिक दर्शन शुद्ध तर्क व नैतिकता पर आधारित है उसमें किसी भी प्रकार के आवेश के लिए स्थान नहीं है। 

प्लेटो के सिद्धान्त की कमियों को रेखांकित करते हुए लेखक का विचार है कि प्लेटो की मनोवैज्ञानिक दृष्टि उतनी पैनी नहीं थी कि काव्य के प्रभाव का सही आकलन कर सकते। जीवन की केन्द्रीय धुरी अनुकरण को मानने का परिणाम, अनेक बातों की व्याख्या उनके लिए संभव नहीं हो सकी। वस्तुतः वह काव्य की प्रकृति को ठीक से नहीं समझ सके। 

अरस्तू के मत का विवेचन करते हुए लेखक का कथन है अरस्तू के मत में अनुकरण वस्तु मात्र का पुनरूत्पादन नहीं वरन् उसके द्वारा मानव हृदय और मस्तिष्क पर पड़े प्रभाव का भी पुनरूत्पादन है यही कारण है कि कवि का अनुकरण हीन वस्तु को भी श्रेष्ठ रूप में उपस्थित कर देता है, दुःखद अनुभव को आह्लादकारी बना देता है क्योंकि वह अनुकरण के माध्यम से सृजन करता है। और सृजन और कल्पना का प्रयोग उसे प्लेटो से सर्वथा भिन्न धरातल पर स्थिर कर देते हैं। चूकिं अनुकरण सृजन है जो कलाकार के आन्तरिक सत्य से नियन्त्रित होकर आकृतियाँ ढालता है अतः हेय नहीं है। वह वस्तु की पार्थिवता का अतिक्रमण कर उसकी अन्तरात्मा को प्रत्यक्ष करने की संवेदनशीलता और पुनः उसकी सम्पूर्णता में व्यक्त करने की अद्भुत शक्ति से युक्त होता है। अतः असुन्दर के अनुकरण में भी आनन्द को संकेतित करने का श्रेय इन्हें है। माध्यम की सूक्ष्मता के कारण संगीत को प्रथम, काव्य को द्वितीय स्थान देते हुए अनुकरण के तीन रूपो त्रासदी, कामदी, महाकाव्य में से समस्याओं के क्यों? का उत्तर समाहित होने के कारण ये त्रासदी को सर्वश्रेष्ठ बताते हैं। दर्शक को इस बात का अहसास रहता है कि वह जो कुछ देख रहा है वह यथार्थ जीवन नहीं, एक अनुकरण है यह च्वमजपब कपेजंदबम हमें वास्तविक भय और पीड़ा से मुक्त रखता है। हमारे भय और करूणा के अतिशय भावों का विरेचन कर मानसिक संतुलन प्रदाता होने से काव्य के प्रभाव को सदा ही मंगलकारी मानते हैं। ये मनोभावों की संतुष्टि के माध्यम से पूर्णता की परिकल्पना करते हुए अनुकरण की क्रिया को अनुकर्ता-श्रोता दोनों के लिए आनन्ददायक मानते हैं। 

लेखक ने पूर्ण प्रतिबद्धता के साथ ऐतिहासिक क्रम में लगभग सभी पाश्चात्य काव्य शास्त्रियों का विवेचन किया है। अरस्तू के बाद 200 वर्षो तक इस क्षेत्र में कोई कार्य नहीं हुआ। रोमी युग (ईसा से 100 वर्ष पूर्व से 500 ई.तक) में भी विवेचन का विषय भाषण कला रही। वे ही नियम प्रकारान्तर से काव्य पर भी लागू हुए। इनके समक्ष किसी न किसी रूप में प्लेटो का अनुकरण सिद्धान्त रहा। जिन्हें वाणी देते हुए लेखक का निष्कर्ष है आगस्टाइन ने कला को सीधे-सीधे ईश्वरीय जगत का अनुकरण माना है। प्लोटिनस का मत भी कुछ इसी प्रकार का रहा, वहीं सैण्ट बौना वैंच्यूरा ने कलाओं को प्रकृति के समकक्ष स्तर प्रदान करना चाहा। इस प्रकार इस समय के विचारकों ने काव्य और कलाओं को प्लेटो द्वारा प्रदत्त अपमान से छुटकारा दिलाने का प्रयास अवश्य किया। 

ईसा की छठी शताब्दी से पन्द्रहवीं शताब्दी तक काव्य चिन्तन शून्य रहा। सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी के काव्य चिन्तकों का स्वर प्लेटो से छूट अरस्तू के सूत्र ‘‘काव्य मनुष्य की क्रियाओं का अनुकरण है’’, पर केन्द्रित हो गया और अनुकरण का विषय इसी जगत को मान कल्पना शक्ति के वैशिष्ट्य को स्वीकार किया गया। 

18वीं शताब्दी (पुनर्जागरण काल) में बौमर्गटन, बर्क, जैम्स हैरिस, आबेचार्ल्स बातों, लेसिंग, टामस ट्विनिंग जैसे विचारकों ने अनुकरण को मूल तत्व मानते हुए अन्य कलाओं में अनुकरण की स्थिति पर ध्यान केन्द्रित पर तुलनात्मक अध्ययन करते हुए अभिव्यक्ति के माध्यम व कलाओं की श्रेष्ठता, वरिष्ठता-क्रम का भी विवेचन किया। यहाँ तक कि बौमर्गटन ने काव्य को समझने के लिए अलग शास्त्र की आवश्यकता पर बल देकर उस शास्त्र को ‘‘सौन्दर्यशास्त्र’’ नाम दिया। काण्ट, हीगेल ऐसे विचारक रहें हैं जो अनुकरण को बहिष्कृत कर कल्पना और प्रतिभा को स्थापित करते हैं परन्तु ध्यातव्य तथ्य यह है कि अनुकरण को सर्वथा त्याज कोई नहीं कर सके। 

19वीं शताब्दी में कॉलरिज, वर्डस्वर्थ, शैले, कीट्स, बायरन, क्रौचे द्वारा इसे काव्य से निष्क्रासित करने का प्रयास हुआ परन्तु शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी में पुनः इसे केन्द्रस्थानीय मान कलाओं की तुलना खेल से की गई। जानडेवी, सान्त्याना, य्रिजो, थियोडोर लिप्स, कानरेड लाज, कार्लग्रुस ऐसे ही विचारक हैं। इस समय अनुकरण का पूर्ण विरोध करने वालों में यूगेन वैरों का नाम महत्वपूर्ण है। वे अनुकरण को साधन मानते हैं, सौन्दर्य नहीं, जिसकी अभिव्यक्ति का माध्यम है कलाकार का व्यक्तित्व और कौशल। 

नई समीक्षा के आलोचक भी काव्य में अनुकरण की सत्ता को स्वीकार करते हैं। इस प्रकार पाश्चात्य काव्य क्षेत्र में तीन शब्द बीजाक्षर रूप में रहे - अनुकरण, कल्पना, और अभिव्यक्ति। अनुकरण का समर्थन करने वाले विद्वान भी कल्पना का पूर्णतः बहिष्कार नहीं कर सके। अतः काव्य को आत्मतत्व से हीन मानना सम्भव ही नहीं। 

पुस्तक का तृतीय खण्ड ‘‘अनुकरण सिद्धान्त और भारतीय चिन्तन’’ में भारत के काव्य शास्त्रीय सिद्धान्तों रस, अलंकार, वक्रोति, ध्वनि तथा कवि शिक्षा, कवि समय के संग अनुकरण तत्व का विवेचन किया है। इस विस्तृत विवेचन के आधार पर सार तत्व प्रस्तुत करते हुए लेखक का कथन है भरत की दृष्टि रस पर थी जिसके दो आयाम थे - रंगमंच पर रस की भौतिक रूप प्रस्तुति और उसके माध्यम से सहृदय को रस का अस्वादन अतः रंगमंच पर विभावानुभाव रूप रस की प्रस्तुति अनुकरण प्रधान होने पर भी रंगमंच का अनुभव लोक के भाव के अनुभव से भिन्न होता है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण ‘‘करूण-रस’’ की आनन्दरूप अनुभूति है। 

सहृदय को रसानुभूति किस प्रकार होती है? इसके प्रत्युत्तर स्वरूप प्रस्तुत रससूत्र के व्याख्याकार भट्टनायक और अभिनवगुप्त की स्थापना - ‘‘रस निष्पति का मूलाधार सहृदय के हृदय में वासना रूप में स्थित अपने ही भाव है’’ से अनुकरण से निष्पत्ति का नाता सदा के लिए समाप्त हो जाता है। 

अलंकार सम्प्रदाय में अनुकरण उपमानों के प्रयोग के रूप में है परन्तु आधुनिक काल में प्राचीन उपमानों के प्रति विद्रोह भाव और नवीन उपमानों के अनुसंधान की प्रक्रिया अपेक्षाकृत अधिक तीव्र हुई है। 

वक्रोति सिद्धान्त में कुन्तक वस्तु वक्रता के अन्तर्गत काव्य वस्तु का वर्णन कर कवि प्रतिभा और वक्रोति की साधना को प्रमुख मानते हुए भी अन्तिम उद्देश्य आह्लाद ही मानते हैं। 

ध्वनि सिद्धान्त में वाच्यार्थ प्रकृति के अनुकरण पर आधारित है और व्यंग्यार्थ ग्रहण कुछ निश्चित विधियों के अनुकरण पर। लेखक की स्थापना है कि महाकवियों के अनुकरण को ही काव्य का उद्देश्य मानने से कोई भी श्रेष्ठ काव्य सिद्धान्त रूढ़िबद्ध होकर किस प्रकार व्यावहारिक आलोचना के क्षेत्र से बाहर चला जाता हैं, ध्वनि सिद्धान्त इसका बहुत अच्छा उदाहरण है। 

कवि शिक्षा और अनुकरण के सम्बन्ध में लेखक का मन्तव्य है प्रतिभा का उद्दाम वेग और सर्जनात्मक आवेग कभी भी कवि शिक्षा के मुखापेक्षी नहीं होते। 

कवि समय और अनुकरण तत्व का सार तत्व यही है कि ‘‘कला प्रकृति का अनुकरण है’’ सूत्र यहाँ आकर निष्फल हो जाता है। भारतीय काव्य इन कवि समयों से समृद्ध है। 

चतुर्थ खण्ड - ‘‘अनुकरण-सिद्धान्त, - विवेचन और स्थापनाएँ’’ में - प्राप्त सामग्री के आधार पर अनुकरण सम्बधित मूलभूत प्रश्नों के संग वर्तमान में कलाओं में अनुकरण के अनुपात को देखने का प्रयास किया है। चूंकि अनुकरण कार्य व्यापार का पुनरूत्पादन है अतः पाश्चात्य विचारकों के मतों के सार स्वरूप अनुकार्य सम्बन्धी ये जो विचार प्राप्त होते हैं, वे हैं - प्रकृति के माध्यम से ईश्वरीय प्रत्यय अनुकार्य है, सीधे-सीधे ईश्वरीय जगत और ईश्वर ही अनुकार्य है, सीधे-सीधे प्रकृति ही अनुकार्य है। क्या अनुकार्य कुरूप और हीन भी हो सकता है? तथा क्या महापुरूषों और महान कलाकारों की कृतियाँ ही अुनकार्य है। 

समस्त सिद्धान्तों एवं व्यावहारिक उदाहरणों के धरातल पर उनके निष्कर्ष रूप में लेखक की स्थापनाएँ है कि अनुकार्य का स्वरूप प्रत्यय रूप होता है परन्तु उसकी स्थिति दिव्य लोक में नहीं कलाकार के मन में होती है। कला का वास्तविक अनुकार्य मनुष्य जीवन और उसका विस्तार है, शेष सभी उसी से सम्बन्ध हैं। कुरूप अुनकार्य की स्वीकृति सिद्धान्त व व्यवहार दोनों में दिखलाई पड़ती है। अतः अब उसके सुन्दर अुनकरण का प्रश्न भी समाप्त हो गया है। जहाँ तक महान कलाकारों के अनुकरण का प्रश्न है यह व्यावहारिक होकर भी आदर्श नहीं है। मात्र प्रेरणा के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। दिनकर के उर्वशी काव्य-नाटक के माध्यम से लेखक ने माध्यम गत सीमाओं को स्पष्ट कर उपन्यास में चित्रित यथार्थ जीवन के उसमें असम्भव होने की बात कही है। वहीं अनुकरण और सृजन पर आपका निष्कर्ष है - अनुकरण अपने आप में सृजन नहीं है, यह तभी सृजन की कोटि में आता है जब भाव की प्रेरणा से आत्म प्रकाशन का साधन बनता है। तब प्रश्न उठता है क्या कलाएँ अनुकरण हैं? प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर लेखक का स्पष्ट मन्तव्य है कोई कला अनुकरण तत्व से मुक्त नहीं हो सकती परन्तु किसी भी रचना को कला की कोटि में लाने वाला व्यावर्तक तत्व अनुकरण नहीं सृजन है। परन्तु आज आंचलिक और मनोविश्लेषण उपन्यास साहित्य में वैज्ञानिक की तरह यथार्थ को परोसा जा रहा है वे अनुकरण के श्रेष्ठ उदाहरण है। 

जहाँ तक अनुकरण और आनन्द का प्रश्न है करूण-रस का आस्वाद सिद्ध करता है कि काव्य में रस रूप परिणति होनी ही चाहिए परन्तु चूकिं साहित्य सिद्धान्तों का निर्माण समय विशेष पर प्राप्त साहित्य के संदर्भ में होता है अतः वर्तमान परिस्थितियों में उपलब्ध साहित्य को आचार्य शुक्ल के मत का समर्थन करते हुए द्वितीय कोटि की कला के रूप में स्वीकृति देकर समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। 

आधुनिक टेक्नौलॉजी और कलाओं में अनुकरण पर विवेचन को चित्रकला के माध्यम से स्पष्ट किया है। वह यह है कि नाटक में जहाँ लेखन ही सर्जनात्मक और प्रधान है, प्रस्तुति अनुकरणात्मक परिणाम है वहीं चलचित्र में नाटककार बहुत पीछे छूट गया है, महत्व है मात्र प्रस्तुति का, जो अनिवार्यतः टेक्नौलॉजी के इतने अधिक अधतन आविष्कारों को अपने में समेटे हुए है जिनकी जानकारी विशेषज्ञों को ही होती है। संकलन कला, लघुतम कला, नैत्रेन्द्रिय कला, मनोवर्द्धक कला, पॉपकला, रंग क्षेत्रीय कला, रद्दी मूर्ति कला, आकारित कला, गतिमान खिलौने कला, अधिष्ठापान कला, वातावरणीय कला प्रयोजना, स्थल विशिष्ट शिल्प इत्यादि के रूप में स्थापत्य, मूर्ति, चित्र, संगीत, नृत्य, अभिनय कलाओं को परस्पर अन्तर्प्रविष्ट कर और आधुनिकतम् वैज्ञानिक उपकरणों द्वारा केवल सौन्दर्यनुभूति को ही लक्ष्य में रख कलाओं के मध्य उपयोगिता और ललित का अन्तर समाप्त कर पश्चिम में अत्यन्त तनावपूर्ण जीवन को भले ही राहत प्रदान की जाए परन्तु इसके दुष्परिणाम स्वरूप कला का आध्यात्मिक अधिष्ठान तिरोहित हो रहा है निश्चय ही यह चिन्तनीय विषय है जिस ओर पाठक का ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास किया है। वस्तुतः इसमें तो विरेचन की गम्भीरता भी नहीं है। अतः रस से तुलना तो बहुत दूर की बात है। 

अनुकरण की स्थिति पर समग्र विवेचन के सन्दर्भ में लेखक ने पुरजोर शब्दों में इस निष्कर्ष को प्रस्तुत किया है कि नाटक के प्रसंग में प्रेक्षागृह में बैठे सभी सहृदयों को जिस रस का परिपाक होता है वह आनन्द एक उपलब्धि है, खोए हुए को पाना नहीं। अतः कलाओं का परस्पर अन्तर्प्रविष्ट होना और वैज्ञानिक उपकरणों का प्रयोग साधन के रूप में ही होना चाहिए, साध्य के रूप में नहीं। क्योंकि कलाओं की अभिव्यक्ति कलाकार द्वारा आत्मतत्व का अभिरंजन है, अपने सम्पूर्ण कलात्मक प्रयासों द्वारा वह आत्माभिरंजन को साधारणीकृत कर सम्पूर्ण मानव की महानता की वन्दना करता है। अतः मानव के निष्क्रासन का कोई भी प्रयास सफल हो ही नहीं सकता। हां, इस आत्माभिरंजन और आनन्द के संयोजन में अनुकरण तत्व की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका रहती है परन्तु वह साध्य कदापि नहीं हो सकता। 

सार रूप में इतना कि नीर-क्षीर विवेकी तटस्थ दृष्टि अपनाते हुए सहज-सरल भाषा शैली में खड़ी बोली हिन्दी के माध्यम से प्रमाण पुष्ट आधार पर दो भिन्न संस्कृतियों के काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों को सामने रख नाट्यशास्त्र से लेकर अघुनातन समस्त कलाओं के आलोक में तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य में सामान्य मानवीय गुणधर्म के आधार पर काव्यात्मा और उससे सम्बन्धित प्रश्नों का समाधान जिस तार्किकता से किया गया है वह लेखक के जीवन की सतत साधना का परिणाम है। यह अनुसंधान समय के प्रवाह में मील का पत्थर साबित होगा - ऐसा हमारा विश्वास है, लेखक इस गुरूतर कार्य के लिए बधाई के पात्र हैं। मैं अपनी समस्त सद्भावनाओं के संग आपके दीर्घ-स्वस्थ-कर्ममय जीवन की मंगल कामना करती हूँ। 

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