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बच्चों को दीजिए कार से पहले संस्कार - मुनि ललितप्रभ

घर के बाहर महँगी कार हमारी समृद्धि का प्रतीक है, पर घर के अंदर शुभ संस्कार हमारे संस्कृति के प्रतीक है।

इंदौर । राष्ट्र-संत ललितप्रभ महाराज ने कहा कि हमें बच्चों को कार से पहले संस्कार देने चाहिए और कोई कार कब तक चलेगी कहा नहीं जा सकता, पर जिस घर में संस्कार की कार होती है, वहाँ पर बड़े बुजुर्गों का बुढ़ापा सुखमय जाता है। जो बच्चों को केवल जन्म देते हैं और भाग्य भरोसे छोड़ देते हैं वे सामान्य दर्जे के माँ-बाप होते हैं, जो बच्चों को जन्म के साथ सुविधाएँ एवं संपत्ति भी देते हैं वे मध्यम दर्जे के माँ-बाप होते हैं, पर जो बच्चों को जन्म और संपत्ति के साथ संस्कृति और संस्कार भी दिया करते हैं वे ही उत्तम दर्जे के माँ-बाप कहलाया करते हैं। संस्कार रहेंगे तो परिवार में सदाबहार खुशियाँ रहेंगी अन्यथा खुशियों को ग्रहण लगते वक्त नहीं लगेगा। संतप्रवर ने कहा कि घर के बाहर कार है यह आपकी संपत्ति का परिणाम है, पर आपकी बहू घर की बूढ़ी दादीसा को गर्मागर्म खाना बनाकर अपने हाथों से परोस रही है और रात को उनके पाँव दबा कर बेडरूम में जा रही है, यह आपके शुभ संस्कारों का परिणाम है।

संत ललितप्रभ एरोड्राम रोड स्थित महावीर बाग में टीवी चैनल एवं सोशलमीडिया पर जनमानस को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि इंसान वैसा ही बनता है जैसा उसे साहचर्य एवं संस्कार मिलता है। गंदगी का भी अगर खाद के रूप में उपयोग किया जाए तो वह फूल में सुगंध पैदा करने का आधार बन जाती है। अगर हम अपने बच्चों के मोह में अंधे धृतराष्ट बन जाएँगे तो वे दु:शासन और दुर्याेधन जैसे निकल जाएँगे और उनके संस्कारों के प्रति सावधान रहेंगे तो वे राम-कृष्ण-महावीर-बुद्ध जैसे बन जाएँगे।
संतप्रवर ने अभिभावकों से कहा कि बच्चों को कितना भी धन क्यों न देकर चले जाओ वे कभी भी आपको धन्यवाद नहीं देंगे। अगर बेटा सपूत है तो धन नहीं दोगे तो भी चल जाएगा और अगर बेटा कपूत है तो कितना भी धन दे दो कुछ नहीं बचा पाएगा। इसलिए आप अपने बच्चों को ऊँची शिक्षा के साथ ऊँचे संस्कार दें ताकि वे न केवल अपने पाँवों पर खड़े हो सकें वरन् सबके लिए आदर्श भी बन सकें।
राष्ट्र-संत ने घटते संस्कारों पर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि पिछले पचास सालों में हर घर में समृद्धि तो खूब बढ़ी, पर हमने संस्कारों पर ध्यान देना छोड़ दिया परिणाम वे घटते चले गए। आज सभी संतो का दायित्व होता है कि अपने सत्संग और प्रवचनों में संस्कार निर्माण पर अवश्य बोलें। संस्कारों पर ध्यान न देने की वजह से ही परिवार और रिश्ते टूटते जा रहे हैं। अगर यही स्थिति रही तो पच्चीस सालों के बाद गली-गली में वृद्धाश्रम खुल जाएँगे। उन्होंने कहा कि बड़े दुख की बात है कि व्यक्ति अपने कर्तव्यों को भूलता जा रहा है। आजकल संतों को यह कहना पड़ता है कि माँ-बाप की सेवा करो, भाई होकर भाई के काम आओ।
संतप्रवर ने कहा कि जीवन में जो कुछ मिलता है वह विनम्रता से ही मिलता है। रावण के पास सब कुछ था, पर विनम्रता नहीं थी इसलिए वह लोगों के दिलों में जगह न बना पाया, पर राम के पास विनम्रता थी, सो वे भगवान बन गए। विनम्रता को जीवन में लाने के लिए संतप्रवर ने कहा कि बड़ों के सामने बैठें, न उनसे ऊपर न उनके आसन के बराबर बैठें, बड़ों के आवाज देने पर उनके पास जाकर धीमी आवाज से जवाब दें, उनके आने पर खड़े हो जाएँ और कभी उनके स्वागत-सम्मान में कमी न आने दें। वे जो आज्ञा दें उसे बिना तर्क दिए पूरा कर दें।
संतप्रवर ने कहा कि बच्चे इसलिए कहना नहीं मानते क्योंकि हम उन्हें पहले ही माथे चढ़ा देते हैं। हम बच्चों का लाड करें, पर लाड में वे बिगड़ न जाए इसका भी ध्यान रखें। उन्हें अनुशासन में रहना सिखाएँ। अनुशासन को अंग्रेजी में कहते हैं - डिसीप्लीन जिसकी स्पेलिंग है डी आई एस सी आई पी एल आई एन इ। अगर इन्हें डी=4, आई=9, इस तरह मार्क दिए जाए तो आता है डिसीप्लीन = 100 अर्थात् जिंदगी में अनुशासन सौ प्रतिशत सफलता पाने की नींव है। समारोह का शुभारंभ दिगम्बर जैन महासमिति के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं पूर्व पार्षद पवन जैन दीपप्रज्वलन के साथ किया। समारोह का आयोजन श्री जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ श्रीसंघ के तत्त्वाधान में हुआ।

 


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