Subscribe Us

अध्यात्म साधकों के लिए उपयोगी समयसार का सार अंग्रेजी में

आचार्य कुंदकुंद रचित समयसार एक आध्यात्मिक व दार्शनिक ग्रंथ है। प्राकृत भाषा के इस प्राचीन ग्रंथ पर अनेक विवेचन और व्याख्यान हुए हैं। अंतरराष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन व शोध केन्द्र के निदेशक साहित्यकार डॉ. दिलीप धींग ने इस पर सरल व सटीक ग्रंथ लिखा, जो 2016 में 'समय और समयसार नाम से प्रकाशित हुआ इसी शोधग्रंथ पर डॉ. धींग को 2017 का प्रतिष्ठित 'कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। यह पुरस्कार देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर से सम्बद्ध कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ की ओर से प्रदान किया जाता है।

अब इस शोधग्रंथ का अंग्रेजी अनवाद "कम्पेण्डियम ऑफ समयसार' नाम से प्रकाशित हो गया है। 'कम्पेण्डियम ऑफ समयसार का अर्थ है- समयसार का सार। इसमें साहित्य-मनीषी डॉ. धींग ने पाँच अध्यायों के बीस परिच्छेदों में समयसार का विश्लेषणात्मक परिशीलन किया है। पहले अध्याय में आचार्य कुन्दकुन्द का व्यक्तित्व और कृतित्व दिया गया समें आचार्य कन्दकन्द के जीवन और समय के विभिन्न मतों की समीक्षा करते हुए उनके साहित्य का सारगर्भित परिचय दिया गया है।

दूसरे अध्याय में समयसार की विषयवस्तु का मूल्यांकन किया गया है, जिसमें 'समय', 'आत्मा', 'भेदविज्ञान' और 'सम्यग्दर्शन' को सापेक्ष दृष्टि से समझाया गया है। यह सर्वविदित है कि 'समयसार द्रव्यानुयोग का ग्रंथ है। द्रव्यानुयोग में तत्त्वों के स्वरूप का निरूपण होता है। द्रव्यानुयोग का ग्रंथ होने के कारण इसमें प्रथमानुयोग (धर्मकथानुयोग), गणितानुयोग और चरणकरणानुयोग की चर्चा नहीं हो सकी है। आचार्य कुन्दकुन्द के दूसरे ग्रंथों में अन्य अनुयोगों पर भी विचार किया गया है। अतः लेखक का कहना है कि समयसार को द्रव्यानुयोग के सन्दर्भ में देखना-परखना चाहिये। अन्य अनुयोग एवं समग्रता के लिए अन्य शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिये।

तीसरे अध्याय में निश्चय और व्यवहार नय के अनुसार नौ तत्वों की सरल व्याख्या की गई हैएकांत निश्चयवाद का निरसन करते हुए लेखक ने कई उद्धरण और उदाहरण देकर पुण्य तत्त्व की उपादेयता सिद्ध की है। इस अध्याय में लेखक ने जैन दर्शन के आत्मवाद की सुन्दर व्याख्या की है। लेखक डॉ. धींग प्रथम तत्त्व जीव की संसार यात्रा को अध्यात्म यात्रा में रूपांतरित करते हुए अंतिम तत्त्व मोक्ष तक विलक्षण निरूपण करते हैं।

चौथे अध्याय में कर्ता और कर्म की अवधारणा पर विचार किया गया है। आत्मा के कर्ता और भोक्ता होने और नहीं होने को लेखक ने अनेकान्त दृष्टि से सुस्पष्ट किया हैआत्मा के बारे में जैन दर्शन और अन्य दर्शनों की मान्यताओं का तुलनात्मक विवेचन किया गया है। इस अध्याय के दूसरे परिच्छेद में लेखक ने जैन दर्शन के अनुसार ज्ञानी और अज्ञानी का अदभुत विश्लेषण किया है, जो स्वतंत्र रूप से भी कुछ शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है। चौथे परिच्छेद में दुरूह माने जाने वाले वस्तु स्वातंत्र्य के सिद्धांत की सुबोध व्याख्या की गई है। चौथे अध्याय के पाँचवें परिच्छेद में लेखक ने समयसार के आधार पर श्रेष्ठ जीवन-कला के व्यावहारिक उपाय सुझाए हैं।

अंतिम पाँचवाँ अध्याय समयसार के आध्यात्मिक पक्ष को समर्पित है। इसके पहले परिच्छेद में लेखक ने अध्यात्म का निराला परिचय दिया है। जैन दर्शन में आध्यात्मिक विकास के रूप में 14 गुणस्थानों की चर्चा प्रसिद्ध हैदूसरे परिच्छेद में डॉ. धींग ने समयसार के आधार पर गुणस्थान की विकास यात्रा बताई है। तीसरे परिच्छेद में आध्यात्मिक साधना के माध्यम से सम्प्रदायवाद और अंधविश्वासों से मुक्त होने की प्रेरणा दी गई है। अंतिम अध्याय के अंतिम परिच्छेद में लेखक ने अध्यात्म के सार्वभौमिक स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। लेखक का कहना है कि जैन दर्शन में ध्यान और योग की मौलिक अवधारणाएँ और साधनाएँ विद्यमान हैं। जैन अध्यात्म की योग-यात्रा योग से परे अयोग तक पहुँचती है। इसे ही सिद्धावस्था कहा जाता है।

उपसंहार में डॉ. धींग कहते हैं कि समयसार आत्मा से जुड़ा शास्त्र है, इसलिए यह आस्था से भी जुड़ा है। यह ग्रंथ राग-मुक्त होने की प्रबल प्रेरणा देता है। लेखक ने आचार्य हेमचन्द्र के संदर्भ से कहा कि राग तीन प्रकार के होते हैं- स्नेह, विषय और दृष्टि राग। स्नेह राग परिजनों और संबंधियों से होता है तो विषय राग सांसारिक इच्छाओं से होता है। दृष्टि राग वह है, जो अपनी सम्प्रदाय और दृष्टि के प्रति होता है। स्नेह राग और विषय राग छोड़कर अनेक व्यक्ति संत, पण्डित या उपदेशक बन जाते हैं। लेकिन, दृष्टि राग छोड़ना अनेक महात्माओं के लिए भी कठिन होता है। स्नेह राग और विषय राग से उत्पन्न परेशानियाँ वैयक्तिक जीवन में खलबली मचाती है। दृष्टि राग से उत्पन्न स्थिति सामुदायिक और संघीय जीवन में सौहार्द घटाती है। दृष्टि राग घटने से सत्य का मार्ग अधिक आसान हो जाता है तथा सत्य का संधान व्यापक, बहुपक्षीय व समृद्ध बनता है। वीतरागता की साधना और लक्ष्य के लिए भी सभी प्रकार के राग का त्याग आवश्यक है। अतः राग का त्याग करके समाज में समता और सौहार्द की प्रतिष्ठा करनी चाहिये।

इस शोधपूर्ण और बोधपूर्ण विवेचन में अनेक अभिनव दृष्टियाँ हैं। इस अनुसंधानपरक लेखन में पहली बार श्वेताम्बर जैन आगमों और ग्रंथों के प्रचुर संदर्भ भी दिए गए हैं। डॉ. धींग के बहुआयामी और सम्प्रदायमुक्त विवेचन से यह शोधग्रंथ सबके लिए सदैव पठनीय, मननीय और संग्रहणीय बन गया है। यह पुस्तक दर्शन और अध्यात्म में रुचिशील व्यक्तियों, शोधार्थियों और साधकों सहित सभी के लिए उपयोगी है। इस 400 पृष्ठीय ग्रंथ में प्राकृत की गाथाएँ और हिन्दी के पद देवनागरी लिपि में भी दिये हैं

जैनविद्या शोध प्रतिष्ठान, चेन्नई एवं जैन दिवाकर अहिंसा सेवा संघ, इन्दौर द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित इस ग्रंथ के अंग्रेजी संस्करण 'कम्पेण्डियम ऑफ समयसार को प्राप्त करने के लिए लेखक के दूरभाष 9414472720 या ईमेल drdhing@gmail.com अथवा प्रकाशक के ईमेल dhakadvsd@gmail.com या दूरभाष 9425106054 पर संपर्क किया जा सकता है। 

*संदीप सृजन

अपने विचार/रचना आप भी हमें मेल कर सकते है- shabdpravah.ujjain@gmail.com पर।

साहित्य, कला, संस्कृति और समाज से जुड़ी लेख/रचनाएँ/समाचार अब हमारे वेब पोर्टल  शाश्वत सृजन पर देखेhttp://shashwatsrijan.com

यूटूयुब चैनल देखें और सब्सक्राइब करे- https://www.youtube.com/channel/UCpRyX9VM7WEY39QytlBjZiw 

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ