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पहचान खोजती हिंदी



✍️ज्योति मिश्रा

"भाषा माता के समान है, माता पर हमारा जो प्रेम होना चाहिए वह हम लोगों में नहीं है | वास्तव में मुझे तो ऐसे सम्मेलनों से प्रेम नहीं है | तीन दिन का जलसा होगा | तीन दिन कह - सुनकर हमें जो करना चाहिए, उसे हम भूल जायेंगे | हमारा शिक्षित वर्ग अंग्रेजी के मोह में फंस गया है और अपनी राष्ट्रीय मातृभाषा से उसे असंतोष हो गया है | पहली माता अंग्रेजी से हमें जो दूध मिल रहा है उसमें जहर और पानी मिला हुआ है और दूसरी माता मातृभाषा से शुद्ध दूध लिया जा सकता है | बिना इस शुद्ध दूध के मिले हमारी उन्नति होना असंभव है, पर जो अंधा है वह देख नहीं सकता; गुलाम यह नहीं जानता कि अपनी बेड़ियाँ किस तरह तोड़ें | पचास वर्षों से हम अंग्रेजी के मोह में फंसे हैं और हमारी प्रजा अज्ञान में डूब रही है, सम्मेलन को इस ओर विशेष ध्यान देना चाहिए | हमें ऐसा उद्योग करना चाहिए कि एक वर्ष में राजकीय सभाओं में, प्रांतीय भाषाओं में, अन्य सभा-समाज और सम्मेलनों में अंग्रेजी का एक भी शब्द सुनाई ना पड़े | हम अंग्रेजी का व्यवहार बिल्कुल त्याग दें |"

 

उपरोक्त वक्तव्य 29 मार्च सन् 1918 को इंदौर के हिंदी साहित्य सम्मेलन में बतौर अध्यक्ष गांधी जी ने अपने लिखित भाषण में कहा था । यह बात हिंदुस्तान की आज़ादी से पूर्व की है | यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि जिस भाषा को मातृभाषा का दर्जा दिलाने हेतु हमारे महापुरुषों ने उस समय संघर्ष किया जब हम गुलामी की बेड़ियों में जकड़े थे उसकी वर्तमान स्थिति आज भी उतनी ही दुःखद है जितनी स्वतंत्रता से पूर्व थी, शायद! उससे भी कहीं अधिक दयनीय...!

 

14 सितंबर सन् 1949 को संविधान सभा द्वारा हिंदी को भारत की राजभाषा बनाए जाने का लिया गया महत्वपूर्ण निर्णय राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के अनुरोध पर वर्ष 1953 से पूरे भारत में " हिंदी दिवस" के रूप में मनाया जाएगा, घोषित होने से सफल होता प्रतीत हुआ था परंतु महान साहित्यकारों और महापुरुषों के अथक प्रयास के पश्चात भी " जनमानस की भाषा" कही जाने वाली हिंदी वर्तमान में जनमानस की ज़बान पर कहीं भी अपना स्थान पाती नहीं दिख रही |

 

हिंदी ना केवल सरकारी कार्यालयों, संस्थाओं से ही अपना स्थान खोती जा रही है वरन् सामान्य बोलचाल में भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है | बड़ी-बड़ी शैक्षणिक प्रतियोगिताओं में चयनित होने और जीवन में सफलतम् नागरिक बनने हेतु अंग्रेजी माध्यम से ही बच्चों को पढ़ाए जाने की अघोषित परम्परा भविष्य के शिखर से हिंदी की मातृभाषा का मुकुट भी छीन लेने को अग्रसर होती दिख रही है |

 

संसार के प्रत्‍येक देश जहां अपनी-अपनी भाषा को महत्व देते हैं वहीं हम भारतवासी दूसरे देश के लोगों से बात करने, उनकी बातों को समझने या वहां कार्य करने के विविध निराधार बहानों को देकर हिंदी बोलने, लिखने और पढ़ने से कतराते हैं | यहां तक कि हिंदी दिवस पर आयोजित कई समारोहों और कार्यक्रमों में भी कई लोग अंग्रेजी भाषा में ही लोगों का अभिनंदन और प्रस्तुतिकरण करते हैं |

 

" निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल

बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटय न हिय के शूल |"

 

मुझे लगता है कि आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह भारतेंदु हरिश्चंद्र जी के उपरोक्त दोहे के मूल भाव से कोसों दूर हम भारतीय आज भी अंग्रेजों के उस मूलभूत उद्देश्य को साकार करते दिखाई दे रहे हैं जिसके लिए लार्ड टॉमस बैबिंग्टन मैकॉले की सिफारिशों को मानते हुए लॉर्ड विलियम बेंटिक ने सन् 1835 में भारत में अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाया था, जिसका उद्देश्य था भारतीयों की ऐसी पीढ़ी तैयार करना जो खून और रंग से भारतीय हों लेकिन पसंद, आचार-विचार, बुद्धिमत्ता और राय से अंग्रेज हों |

 

हमारे देश की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि भारतवासी हिंदी बोलना शर्म और अंग्रेजी भाषा के प्रयोग को शान समझते हैं | यहां तक कि हमारी योग्यता का निर्धारण भी अंग्रेजी के ज्ञान के आधार पर किया जाता है | हो भी क्यों न! जहां दुनिया के सभी देशों का संविधान उनकी मातृभाषा में है वहीं भारत का संविधान अंग्रेजी में बना है | जब मातृभाषा की नींव ही मात्र औपचारिकता हेतु रखी गयी हो तो उसके अस्तित्व के महल को भरभरा जाते हुए देखने में संदेह या आश्चर्य कैसा...?

 

जहां हम आज भी इस निरर्थक बात के आधार पर अपनी पहचान का गला स्वयं घोंटते जा रहे हैं कि बिना अंग्रेजी सीखे कोई देश तरक्की नहीं कर सकता वहीं चीन, जापान, फ्रांस और जर्मनी ऐसे देश हैं जो अपनी मातृभाषा की नाव पर सवार होकर ही विकास के नए आयाम गढ़ते जा रहे हैं |

 

भाषा और संस्कृति किसी भी राष्ट्र की पहचान होते हैं ऐसे में किसी देश का अपनी मूल भाषा को त्यागकर किसी अन्य भाषा पर आश्रित होना उसके सांस्कृतिक रूप से गुलाम होने का द्दोतक होता है, अतः हमें महात्मा गांधी के निम्न वक्तव्य को सदैव ध्यान में रखना चाहिए - 

 

" दूसरे देश की भाषा जानना गर्व की बात है परंतु उसे अपनी मातृभाषा का दर्जा देना उतने ही अपमान की...!"

 

हिंदी दिवस पर हम जिस हिंदी के लिए प्रतियोगिताओं, कविता, कहानी, लेख लिखते हैं, भाषणों में मातृभाषा और संस्कृति का गुणगान करते हैं वही हिंदी कश्मीर से कन्याकुमारी तक, प्रत्‍येक घर, प्रत्‍येक बच्चा, साक्षर से लेकर निरक्षर तक सभी के हृदय की भावनाओं को व्यक्त करने का सबसे सरल और मधुर माध्यम है, फिर हम स्वयं की अभिव्यक्ति, स्वयं की भावनाओं को ही जटिलता की बेड़ियों में बंदी बनाने को आतुर क्यों हैं? इसी सत्र के बोर्ड के हिन्दी माध्यम के अधिकांश विद्यार्थियों का हिंदी विषय में अनुत्तीर्ण होना हिंदी की वास्तविक दुर्दशा का प्रमाणित साक्ष्य है |

 

भारतीय संस्कृति, परम्पराओं, संस्कारों और आदर्शों की सदियों से हिंदी भाषा साक्षी रही है इसका उत्थान मात्र 14 सितंबर को " हिंदी दिवस" के रूप में आयोजित कर के नहीं किया जा सकता | इसके लिए प्रत्‍येक दिवस, प्रत्‍येक कागज, प्रत्‍येक हृदय, प्रत्‍येक अंगुली, प्रत्‍येक ज़बान से हिंदी लिखी, सुनी और पढ़ी जानी आवश्यक है |

 

"देह पर समय की वह, खोजती है चिन्ह जो 

जन्म के संघर्ष की, जवानी की प्रतिबिंब जो 

तोड़ न गुरूर वह, जिसपे श्वास चल रही 

हिमाद्रि ताज पर सजी ' हिंदी' का बिंद जो |" 

 

*रामापुर (बाज़ार),पोस्ट - तरबगंज

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