✍️कारुलाल जमडा़
यह उस समय की बात है जब मैं कक्षा 9वी का विद्यार्थी था|हमारे एक शिक्षक श्री चौधरी जी जावरा से सुखेडा़ में पढ़ाने आया करते थे|वे हमें सामाजिक विज्ञान पढ़ाया करते थे|उनकी श्रीमती जी भी कभी-कभी आ जाती थी और मेरे परिवार से उनका परिचय हो गया था|"माँ"उन्हें मेरा ध्यान रखने का कहती |इसलिए चौधरी सर की नज़र मुझ पर रहती थी|एक बार जब मैं कक्षा से दोपहर बाद गायब होकर आम्रकुंज में क्रिकेट खेलने पहुँच गया तो वे दूसरे दिन बहुत क्रोधित हुए| स्कूल पहुँचते ही उन्होंने मुझसे पूछा-"कल दोपहर पश्चात स्कूल क्यों नहीं आए?कहाँ गए थे ?
मैने जवाब दिया-"सर!घर पर काम था| तब उन्होंने कहा-"मुझे सब पता है कि
तुम कहाँ थे?जिस समय मेरा कालखण्ड था,उस समय तुम अपने साथियों के साथ क्रिकेट खेलने आम के बगीचे में गए थे"! "बोलो"!"गए थे या नहीं"?
मैंने जवाब दिया-"यस सर! पर मैं अकेला नहीं गया था| स्कूल से कई लड़के मेरे साथ खेल रहे थे"|
तब वे बोले-"जो दूसरे करेंगे तो तुम भी वही करोगे|तुम्हें पता है तुम्हारे साथ जो बच्चे खेल रहे थे,वे कौन हैं"?तुम्हारे और उनके बीच में कितना अंतर है?
मैंने कहा-"नहीं सर,मुझे नहीं पता|
कालखण्ड समाप्ति के बाद उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया और कहा-" देखो! जीवन में दो चीजें हमेशा याद रखो|पहला "क्या" और दूसरा"कैसे"|परंतु महत्त्व हमेशा "कैसे" को देना "क्या" को नहीं|
मैंने कहा- "सर"!"मुझे बात समझ में नहीं आ रही"! तब वे बोले कि तुम्हारे साथ जितने भी लड़के खेल रहे थे वे सब आर्थिक और सामाजिक स्तर पर तुमसे कई गुना आगे हैं|उनकी पढ़ाई पर जो खर्च हो रहा है,उससे उनके माता-पिता के घर का एक कोना भी खाली नहीं होगा |परंतु तुम्हारे माता-पिता तुम्हें कैसे पढ़ा रहे,यह तुम्हें बहुत अच्छे से पता होना चाहिए| वे अपना पेट काट-काट कर तुम्हें बडा़ कर रहे है और पढ़ा भी रहे हैं अब बताओ तुम्हारी और उनकी स्थिति में अंतर है या नहीं ?मैंने कहा--"यस सर"!
वे बोलते गये| वर्तमान समय में तुम और तुम्हारे दोस्त"क्या"के मामले में एक ही जगह पर हो याने एक ही "स्थिति" में हो| तुम सभी विद्यार्थी हो| परंतु"कैसे"की स्थिति में तुम और वे बहुत अलग-अलग जगह पर हो| भविष्य में हमेशा ध्यान रखना !अगर तुम "कैसे" (परिस्थिति)को देखोगे तो सदैव आगे बढ़ते हुए तुममें एक तरह का "संतोष" भी रहेगा,"आत्मविश्वास"भी और स्वयं के प्रति "उच्चभावना" भी|अगर सिर्फ़ "क्या"(पद या स्थिति)को देखोगे तो उच्च पद/स्थिति वाले को देखकर जीवन में असंतोष,ईर्ष्या और हीन भावना पैदा होगी"|
स्मरण रहे--"हीनताबोध,उच्चताबोध से अधिक बडा़ अपराध है"!
तुम भले ही कितने भी बड़े व्यक्ति से मिलो,पहले यह देखना कि वह जहाँ है,जिस स्थिति में है,वहाँ तक पहुँचा"कैसे"है? यदि वह तुम्हारी ही जैसी विकट परिस्थितियों, अभावों और पृष्ठभूमि से है,तब तो तुम्हें उससे प्रेरणा लेनी होगी और सबक भी| उससे तुम बहुत कुछ सीखोगे |और अगर उसने वो सब नहीं देखा,जो तुमने अनुभव किया है,तो फिर उसके पद को लेकर अपने भीतर"हीनताबोध"बिल्कुल ही मत आने देना,क्योंकि उसका और तुम्हारा 'कोई मैल नहीं'|इसके विपरित अगर तुम सिर्फ़ उसमे"क्या"(पद/स्थिति)देखोगे और सोचते रहोगे,तो तुम्हारे भीतर ईर्ष्या और हीनता बोध की भावना ही आयेगी|
फिर वे एक बेहतरीन उदाहरण देते हुए बोले--"अच्छा बताओ! अमेरिका के किस राष्ट्रपति का नाम जानते हो?
मैंने तत्काल कहा- ,'जॉन एफ. कैनेडी','जॉर्ज डब्ल्यू .बुश' 'अब्राहम लिंकन'|
"बहुत अच्छा"-उन्होंने जवाब दिया |फिर कहा कि इनमें से सबसे ज्यादा प्रसिद्ध और महान कौन है?
मैंने कहा-"अब्राहम लिंकन"!
वे बोले -"क्यों"?
मैंने जवाब दिया-"इसलिए क्योंकि उन्होंने बहुत गरीबी में जीवनयापन किया|खेतों में काम कर पढ़ाई की|एक-एक क़िताब के लिए मीलों पैदल चले| फिर भी आगे बढ़ते हुए राष्ट्रपति बनें"|
चौधरी सर ने मुस्कराते हुए कहा-"बिल्कुल सही बेटा"! "इसीलिए वे महान कहलाते हैं|जार्जबुश सहित दूसरे राष्ट्रपति भी हैं|पर वे मात्र सफ़ल कहे जा सकते हैं,महान या आदर्श नहीं|अब्राहम लिंकन और उनके बीच बहुत बडा़ अंतर है...और यही अंतर तुम्हें समझना भी है"|
चौधरी सर की यह सीख जीवन में हमेशा बहुत काम आई| बचपन से ही मैं कभी इस बात से प्रभावित नहीं हुआ कि कौन"क्या"है और 'किस पद' पर है,जब तक कि यह नहीं जान लूँ कि वह वहाँ तक पहुँचा"कैसे"है,उसके 'कितने लम्बे'संघर्ष हैं|यदि वह सचमुच विकटपरिस्थितियों,अभावों से उठकर आया हैं,तो मैं सदैव उससे प्रेरणा लेकर बहुत प्रभावित होता हूँ और खूब सीखने की कोशिश करता हूँ|लेकिन इसके विपरित होने पर उसकी पद और प्रतिष्ठा को लेकर स्वयं को कभी हीनभावना से ग्रसित नहीं होने देता|यह तुलना व्यर्थ है|
चौधरी सर के इस "क्या" और "कैसे" का मेरे जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और मैंने इसे अपने जीवन दर्शन का एक"मुख्य सूत्र"बना दिया|यह 'सूत्र' ना तो किसी बड़े पद वाले व्यक्ति की अवहेलना या उसे कम आँकने के लिए था,ना ही "खु़द का दिल बहलाने वाला ख्याल"अपितु मैंने इसे तर्कसंगत दृष्टि से भी खूब परखा और अंततः इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि जीवन में अपने अतीत के साथ वर्तमान का सम्मिश्रण/समायोजन बहुत आवश्यक है|अपने से नीचे की ओर देख कर वर्तमान स्थिति से "संतोष" होना भी आवश्यक है| (यह आत्मसंतुष्टि और जीवनमूल्य ही थे कि बहुत बडे़ पद को छोड़ने में भी मुझे कोई हिचकिचाहट नहीं हुई|)क्योंकि आगे बढ़ने वाले को देखकर कठोर साधना करते हुए भी यदि"ईर्ष्या","असंतोष"या "अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा" की भावनाएँ पैदा हुई तो उससे अधिक बुरी चीज़ दुनिया में कोई दूसरी नहीं|
लगभग 10 वर्षों पश्चात अकस्मात एक दिन आदरणीय चौधरी सर मुझे जावरा बस स्टैंड पर नज़र आये|सेवानिवृत्त होकर वे किसी अन्य शहर में निवासरत थे|मैंने उन्हें प्रणाम कर आशीर्वाद लिया और उन्हें बताया कि उनकी दी हुई वे "दो"अनमोल सीखें आज भी मेरा मार्गदर्शन करती हैं| तब वे बहुत प्रसन्न हुए और जाते-जाते कह गए अपनी इस "क्या" और "कैसे" में एक चीज़ और जोड़ो !
मैंने कहा-"जी सर"!
वे बोले कि वह चीज़ है-"फिर कैसे"?
मैं कई वर्षों बाद इस बार भी आश्चर्य में पड़े बिना नहीं रह पाया |
मैंने कहा--"सर"! यह ....."फिर कैसे"! वे बोले यह "कैसे"और "क्या" के बाद वाला "फिर कैसे"है|
..........अर्थात किसी बड़े 'मुकाम' या 'पद' पर पहुँचने वाला व्यक्ति भले ही किसीे भी तरह वहाँ तक पहुँचा हो....चाहे कठोर अभावों में या फिर आनंद और आराम का जीवन व्यतीत करते हुए |महत्वपूर्ण यह है कि "वहाँ"..उस जगह पहुँचने के बाद वह "फिर कैसे"व्यवहार करता है?
यदि उसे 'पद' अथवा 'मुक़ाम' का गुरुर नहीं है, तब तो ठीक है| वरना उसका सब कुछ पा लेना भी व्यर्थ है |यह कहकर वे चले गये|मैंने नतशीश हो उनकी यह 'तीसरी सीख' भी 'शिरोधार्य' कर ली|आज जब सुनता हूँ कि नीचे से लेकर उच्च स्तर तक बैठे हुए अधिकारी सिर्फ़ पद की वज़ह से गर्व से फूले नहीं समाते,और कई तो पूरे संवेदनहीन होकर अपने माता-पिता तक को वृद्धाश्रम छोड़ने से भी परहेज़ नहीं करते...तब चौधरी सर का "फिर कैसे"?याद आ जाता है | मुझे "क्या","कैसे" और "फिर कैसे" का जीवन मंत्र समझाने वाले मेरे गुरुवर आदरणीय श्री एस. चौधरी साहब को शत-शत नमन और आदरांजलि!
(लेखक कवि,साहित्यकार एवं शिक्षाविद् हैं)
जावरा,जिला रतलाम,म.प्र.
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