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गुरु की महिमा



✍️माया बदेका



  • सब धरती कागद करूं ,लिखनी सब बनराय  । सात समुद्र की मसि करूं,गुरु गुण लिखा न जाय ।

  • अर्थात_

  • पूरी धरती को कागज बना लिया जाये।सब वनों की लकड़ियों को कलम बना ली जाये।सात समुद्रों की स्याही बना ली जाये। तो भी गुरु के गुण लिखे नहीं जा सकते। 

  • गुरु की महिमा बखान नहीं की जा सकती।

  • भारतीय परम्परा में गुरु का बहुत महत्व है।गुरु दर्पण है, जो शिष्य को उसकी वास्तविकता से परिचित कराता है।
    ईश्वर जीवन देता है तन देता है, गुरु मन को गढ़ता है।

    धर्म, अर्थ, काम,मोक्ष  की सीख गुरु के ज्ञान से ही मिलती है।

    गुरु का मान सम्मान हर शिष्य को करना चाहिए। गुरु की कृपादृष्टि शिष्य का भाग्य संवारती है।

    गुरु ज्ञान की बहती गंगा है जो हर दोष हर कमी को पूरा करती है।

    गुरु ज्ञान की पवित्रता, कर्मठ बनाती है, विचारवान बनाती है।

    गुरु अगर सांदीपनि हो तो,शिष्य भी कृष्ण जैसा चाहिए।



  •  'गुरु' शब्द का अर्थ - प्रथम अक्षर 'गु का अर्थ- 'अंधकार' होता है जबकि दूसरे अक्षर 'रु' का अर्थ- 'उसको हटाने वाला' होता है।




  • गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु र्गुरूदेवो महेश्वरः।
    गुरुः साक्षात परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥




आचार्य ही गुरु नहीं होते ।जो ज्ञान की अनुभूति की पराकाष्ठा पर पहुंचा दे। जो हमारा आध्यात्मिक जीवन संवार दे।जीवन दर्शन को समझने में हमें सदैव तत्पर रखे। हमारे अभिमान को खत्म कर आत्मज्ञान दे,वही सच्चा गुरु सदगुरु है।

गुरु-शिष्य संबंधों की व्याख्या के विषय में गीता का यह श्लोक सारगर्भित है__' तद्विद्विप्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया'

 

जैसे प्राचीन काल में राजाओं के बच्चों और सामान्य प्रजा के बच्चों को गुरूकुल में एक समान विद्या दी जाती,समकक्ष रखा जाता था और पूरी शिक्षा ग्रहण करने तक शिष्य और गुरु साथ रहते थे तथा आगे के जीवन में भी गुरु की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती थी।अपनी महत्ता के कारण गुरु को ईश्वर से भी ऊँचा पद दिया गया है। शास्त्रों में  गुरु को ही ईश्वर के विभिन्न रूपों- ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश के रूप में स्थान दिया गया है, सम्मानित किया गया है। गुरु को ब्रह्मा कहा गया क्योंकि वह शिष्य को बनाता है नव जन्म देता है। गुरु, विष्णु भी है क्योंकि वह शिष्य की रक्षा करता है गुरु, साक्षात महेश भी है क्योंकि वह शिष्य के सभी दोषों का संहार भी करता है।



  • भगवान राम और भगवान श्री कृष्ण ने अपने गुरु से शिक्षा पाई और आज उनके मर्यादित, अनुशासित संयमित जीवन का उदाहरण दिया जाता है, उनके अनुसरण का संदेश दिया जाता है।



  • राष्ट्र पर जब कोई संकट आता  तो , उसमें गुरु की बहुत मुख्य भूमिका होती।



  • संत कबीर गुरु महिमा पर कहते हैं__'हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर।
    ईश्वर अगर रूठ जाये कुछ नही , लेकिन गुरू के रूठने पर तो गुरू की शरण रक्षा कर सकती है किंतु गुरू के रूठने पर कहीं भी शरण  नहीं  मिलती है। 



  • पुरातन संस्कृति परम्परा में गुरु पूजन,व्यास पूजन का बहुत महत्व है। हमारे देश में आज भी पांच सितंबर शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है।



  • वर्तमान समय में गुरु को कुछ नादान शिष्य अपशब्द कह देते हैं ,यह नासमझी का परिणाम है। गुरु जो जीवन को संवारता है , उनके लिए सदैव कृतज्ञ होना चाहिए।



  • एकलव्य का उदाहरण गुरु शिष्य परंपरा को शिखर की ऊंचाई पर रखता है। एकलव्य ने एक क्षण भी देर नहीं की अपने गुरु की आज्ञा मानने में और गुरु के वचनानुसार अपना अंगूठा अपने गुरु को गुरु दक्षिणा स्वरूप प्रदान कर दिया।



  • आज शिक्षापद्धति में कभी कभी गुरु भी अपना दायित्व निर्वहन करने में असमर्थ हो जाते हैं। उसके कई कारण हैं।



  • पहले गुरूकुल हुआ करते थे।एक अवधि तक गुरु शिष्य साथ रहते थे।आपस में प्रेम, श्रृद्धा ,त्याग और सबसे बड़ी बात सात्त्विक जीवन हुआ करता था।



  • अब शिक्षा के साथ मनोरंजन,सिनेमा आदि आधुनिकता के आयाम है। शिक्षा के साथ अन्य जगह ध्यान भटकता है।बाहरी आवरण, चकाचौंध का आकाश गुरु शिष्य परंपरा बीच सेतु नहीं, अवरोध बनता है।शिक्षा या ज्ञान की बातें उनसे सम्बंधित प्रश्न तकरार करके साबित करने की कोशिश की जाती है।



  • प्राचीन सभ्यता, परम्परा में व्यास, आचार्य, गुरु का बहुत मान होता था, लेकिन बहुत दुखद है वर्तमान में गुरु को उतना सम्मान नहीं दिया जाता है। अब  देखा गया है की कई जगह गुरू को शिष्य से डर हो जाता है।



  • हमारी भारतीय परम्परा में गुरु शिष्य की महत्ता तो विश्व में जानी जाती है। लेकिन आकलन किया जाये तो देखा जा सकता है आज वर्तमान में व्यास पूजन, व्यासपीठ , गुरु पूजन परम्परा में बहुत बदलाव हो गया है,कम हो गया है। सभी धर्म गुरु की महिमा को प्रथम रखते हैं।



  •  हर धर्म में गुरु को साक्षात ईश स्वरुप माना जाता है।ब्राह्मणों ने आचार्य रूप, बौद्ध धर्म  में कल्याणमित्र रूप, जैन धर्म में तीर्थंकर रूप   है। ईश्वर भी गुरू का गुणनान करते है। ऐसे गुरू के रूठने पर कहीं भी ठौर नहीं। अपने दूसरे दोहे में कबीरदास जी कहते हैं



  • करै दूरी अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदये।



  • बलिहारी वे गुरु की हँस उबारि जु लेय।



  • अर्थात -ज्ञान का अंजन लगाकर शिष्य के अज्ञान दोष को दूर कर देते हैं। उन गुरुजनों की प्रशंसा है, जो जीवो को भव से बचा लेते हैं।



गुरु  की महिमा का बखान और गुरु की महत्ता तो सभी शास्त्रों ने बताई है। ईश्वर को पाने के लिए भी  गुरु का सत्संग आवश्यक है। गुरु के लिए कोई मतभेद   नहीं है। गुरु को सभी ने माना है। सभी गुरु ने दूसरे गुरुओं को आदर एवं  पूर्ण सम्मान दिया है। भारत में बहुत से संप्रदाय तो केवल गुरुवाणी के आधार पर ही अस्तित्व में है। भारतीय परम्परा में माता पिता और गुरु का स्थान बराबरी का या गुरु को और उच्च स्थान दिया गया है।

गुरु पूजन परम्परा, व्यास पूजन'परम्परा की महत्ता निम्नलिखित पंक्तियां सार्थक करती है और इसी से हम जान सकते हैं कि गुरु की महत्ता हमारे जीवन में क्या होती है और हमें क्यो गुरु पूजन से विमुख नहीं होना चाहिए।

 

*उज्जैन मध्यप्रदेश

 


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