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उर्मिल



✍️रंजना कश्यप

वैसे तो उनका नाम उर्मिला था, किन्तु सभी लोग उनको उर्मिल बोलते थे। देखने में वे जितनी बूढ़ी लगती थीं, उतनी थी नहीं। कपड़ों की सिल कर गुज़र-बसर करतीं। उनका अपना घर था। दो कमरे और आंगन।  उनके बाबूजी, जिन्हें सब लाला जी कहते थे। माँ! हाँ माँ की बीमारी ही वज़ह थी, जो उर्मिल ने शादी न करने का फ़ैसला किया। उन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी दाँव पर लगा दी थी। हाँ, बाबूजी की पेंशन अवश्य आती थी। फूल सहेजना और बागवानी करना, उन्हें बहुत पसन्द था। हम बच्चे उनसे गुलाब माँगते तो हमको फुसला देती थीं। पूरा मोहल्ला उनको पसन्द करता था। उनसे मेरी माँ की भी दोस्ती थी, तो हमारे घर भी आती थीं। एक दिन जिस माँ के लिए सब छोड़ दिया था, वह उनको छोड़ गयी। उफ्फ़! कितना बुरा हाल था, और कुछ समय बाद बाबूजी भी चल बसे। वह अकेली रह गयीं, वक़्त ने सँभलने का मौका नहीं दिया। मुझे याद है वो दिन जब हमने ज़बरदस्ती उनको साड़ी पहनाया था, कितनी ख़ुश लग रही थी और शरमा भी रही थीं। फ़ोटो खिंचवा कर रख लिया था। उस दिन मुझे लगा कि कितने अरमान अपने सीने में दबा रखा है इन्होंने। वहीं उर्मिल आज नहीं रहीं, वक़्त ने अज़ीब खेल खेला था, उनको कैंसर था, बहुत इलाज़ हुआ, मोहल्ले वालों ने बहुत सेवा की, पर नहीं बचीं। मन बहुत खिन्न था। कुछ दिनों बाद वकील ने आ कर उनकी वसीयत पढ़ी, उन्होंने सारे मोह्लेवासियों के नाम कुछ पैसे किए थे, लेकिन किसी ने भी लिए नहीं। आखिर में सब उसी भाई को ही मिला, जिस से उनका कोई नाता नहीं था। आज भी जब गली से गुजरती हूं तो मशीन कि गड़गड़ाहट, आंगन में लालजी अख़बार पढ़ते हुए याद आ ही जाते हैं।

*झाकड़ी हिमाचल प्रदेश


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