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महामारी में सरपंच साहब का कुशल प्रबंधन



✍️सुशील कुमार 'नवीन'


एक बार किसी गांव में पशुओं में कोई अज्ञात बीमारी फैल गई। पुराना जमाना तो जांच आदि की सुविधा नहीं थी। किस-किस पशु को ये बीमारी है। ये भी पता नहीं लग पा रहा था। लक्षण सबके सामान्य थे। रात को पशु सामान्य दिखता। सुबह मृत मिलता। अब गांव वाले परेशान। करें तो क्या करें। सब एकत्र होकर गांव के सरपंच के पास जा पहुंचे और इसके लिए कोई समाधान ढूंढने की रिक्वेस्ट की। सरपंच के पास कोई इसका कोई उपाय नहीं था, पर गांव वालों को सीधा मना करना खुद की बेइज्जती करवाना था। सो सबको पहला गुरुमंत्र दे दिया। कहा-लगता है ये कोई दैवीय प्रकोप है। इसके लिए सबको देवी-देवता मनाने होंगे। चार दिन कोई अपने घर की चारदीवारी से बाहर नहीं निकलना। कोई किसी से मिलेगा नहीं। 


गांववालों ने सरपंच के आदेश को शिरोधार्य कर वैसा ही किया। परिणाम यथावत रहा। पशु इसी तरह मरते रहे। पांचवें दिन फिर सब सरपंच साहब के पास पहुंचे। अब सरपंच साहब ने नया उपाय तर्क के साथ समझाया। देखो! इस बीमारी की कोई दवा तो है नहीं। ऐसे में जो पशु बीमार हैं उन्हें गांव से बाहर बड़े बाड़े में छोड़ दें। ताकि दूसरे पशु इनके संक्रमण में न आये। चिंता मत करो, जिसका जो नुकसान होगा, उसकी भरपाई करवा देंगे। सरपंच की बात मान कुछ लोग बीमार पशु को बाड़े में छोड़ आये। दो दिन में ही मृत पशुओं से बाड़ा सड़ने लगा। सड़ांध गांव तक आने लगी तो मृत पशुओं पर वहीं मिट्टी डाल जमीदोंज कर दिया गया। सरपंच साहब ने पूरे गांव में दवा का छिड़काव करवाया। पशुओं का मरना फिर भी नहीं रुका था। गांव में चार पशु ही बचे। ग्रामीण फिर सरपंच साहब के पास पहुंचे। सरपंच साहब ने सबको दिलासा दी और भरोसा दिया।कहा-दो-तीन दिन इंतजार करो। बीमारी बस खत्म होने को है। ग्रामीणों के कुछ समझ में नहीं आया। दो दिन में शेष बचे चारों पशु भी मर गए। अब ग्रामीणों के सब्र का बांध टूट गया। गुस्सा होकर फिर सरपंच के पास जा पहुंचे। कहा-सारे गांव के पशु मर गए। आखिर किस बात के सरपंच हो। ये बताओ पशुओं को बचाने के लिये तुमने क्या किया। क्या अब हमें भी मरवाओगे। सरपंच साहब विनम्र होकर बोले- आप सब लोगों का दर्द समझता हूं। अब चिंता की कोई बात नहीं है। अपने घर जाओ और आराम करो। अब तो टेंशन ही खत्म हो गयी है। एक ग्रामीण का जोश फिर उबाल कहा गया। कहा-बीमारी तो सारे पशुओं को मार कर खत्म हुई है। आपने क्या किया। 


सरपंच साहब ने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा- प्यारे, मैंने दिया तुम्हें हौसला। पशुओं को मरता देख साथ-साथ तुम भी मर जाते। तुम्हें बातों में उलझाए रखा। ऐसे में तुम कुछ और सोच ही नहीं पाए।  ये तो मरने ही थे। पर तुम्हें बचाने में कामयाब हो गया। जिंदा रहे तो पशु तो और आ जाएंगे, पर तुम्हें कुछ हो जाता तो कहां से वापस लाता। अब गांववालों के पास कोई जवाब नहीं था। सरपंच साहब की जय हो, जय हो..कहकर वापस लौट गए। पूरे गांव में बस अब सरपंच साहब के इस कार्य की चर्चा थी कि देखो, पशु भले ही सारे मर गए हो पर सरपंच ने समझदारी से हम सब को बचा लिया। उधर, सरपंच साहब इस बात से खुश थे कि इज्जत भी बच गयी और बीमारी भी गांव में और मान दे दी गई। 


 *हिसार


 


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