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भारत में तालाबंदी की परंपरा



✍️डॉ. दिलीप धींग
मौजूदा हिंदी भाषा का संसार अंग्रेजी से अत्यधिक प्रभावित और बोझिल है। रोजमर्रा के संचार माध्यमों में जिन शब्दों का प्रयोग बार-बार होता है, वे शब्द लोगों की जुबान पर आ जाते हैं। इसके अलावा राजनीतिक गलियारों और शैक्षणिक जगत में जिन शब्दों का प्रयोग अधिक होता या किया जाता है, वे शब्द भी विभिन्न माध्यमों से समाज और जनजीवन में प्रचलित हो जाते हैं। कोरोना महामारी के दौर में, इस महामारी के सम्बन्ध में संचार माध्यमों से हिंदी भाषा में जिस तरह से अंग्रेजी शब्दों का अनियंत्रित प्रयोग किया गया, उससे सामान्य हिन्दी भाषी बहुत ही असहज हो गया। बार-बार प्रयुक्त होने से आम आदमी को कुछ शब्दों का अर्थबोध भले ही होने लगा, लेकिन इससे अपनी समृद्ध भाषा की कृत्रिम दरिद्रता भी प्रकट की गई। इससे जाने-अनजाने हिंदी की उपेक्षा भी हुई। 
अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग से साधारण आदमी को ऐसा लगता है, जैसे उसे कुछ नया बताया या सिखाया जा रहा है। हालांकि इस लेख का मंतव्य शब्द और भाषा पर चर्चा करना नहीं है, फिर भी परिचयात्मक रूप से यह भूमिका आवश्यक लगी, इसलिए दी गई है। इसी भूमिका पर यहाँ लॉकडाउन के बारे में विमर्श किया जा रहा है। इस शब्द के लिए हिंदी में तालाबंदी शब्द भी प्रयुक्त किया गया। कोरोना काल में इसके अर्थ से सभी सुपरिचित हो गये हैं। 
तालाबंदी के परिणामस्वरूप व्यक्ति, परिवार, समाज और देश पर कई प्रकार के अनुकूल और प्रतिकूल प्रभाव हुए। प्रतिकूल प्रभाव अर्थव्यवस्था एवं रोजगार पर हुआ। अनुकूल प्रभाव के अनेक समाचार देश-विदेश से आने लगे। नदियाँ, वन, वन्य जीव, अन्य जीव, जल, भूगर्भीय जल, जलवायु, नगरीय आबोहवा आदि पर्यावरण के जितने भी निमित्त व उपादान हैं, उन सभी पर तालाबंदी का अत्यंत अनुकूल प्रभाव हुआ। हवा स्वच्छ हो गई। नदियों का जल निर्मल हो गया। भूगर्भीय जलस्तर में बढ़ोतरी हो गई। समुद्री पर्यावरण में सुधार हो गया। इससे प्रदूषणजनित बीमारियों के मरीज भी राहत महसूस करने लगे। बिना दवा के उनकी सेहत ठीक रहने लगी। 


यह अनुकूल प्रभाव इतना अमाप्य और अगणनीय रहा है कि प्रदूषण-निवारण और पर्यावरण-संरक्षण की हजारों करोड़ की योजनाएँ भी जो नहीं कर पाईं, वह तालाबंदी से हो गया। इसके अलावा तालाबंदी के कारण लोगों ने अपने वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक जीवन में भी कई प्रकार की अनुकूलताएँ महसूस कीं। लोगों को अपने पारिवारिक, साहित्यिक और साधनमय जीवन के लिए कुछ समय मिला और उन्होंने वह श्रेष्ठ किया जो चाहने पर भी लम्बे समय से वे कर नहीं पा रहे थे। कई लोगों का यह अनुभव और मंतव्य रहा कि ऐसी तालाबंदी तो कुछ समय के लिए हर साल होनी चाहिये। जैन ग्रंथों में नियोजित व उद्देश्यपूर्ण तालाबंदी के कम से कम दो रूप मिलते हैं- (1) अहिंसक तालाबंदी, (2) व्यावसायिक तालाबंदी।


अहिंसक तालाबंदी : 
जैन ग्रंथों में आगम युग से यानी प्राचीन समय से ही अहिंसक तालाबंदी का प्रावधान है। इस शासकीय और वहनीय तालाबंदी को अमारि प्रवर्तन कहा जाता है। अमारि प्रवर्तन के अंतर्गत सांस्कृतिक पर्व, पवित्र त्योहार और आराधना के दिनों में निर्धारित क्षेत्र, प्रांत या देश में पशु-पक्षी वध और मांस-मदिरा के क्रय-विक्रय पर कानूनन रोक लगाई जाती है। ‘अमारि’ यानी जीवों को मारने का निषेध अर्थात् अहिंसा। अमारि प्रवर्तन यानी निर्धारित समय व क्षेत्र में अहिंसा का प्रवर्तन, पालन और प्रतिष्ठा। क्षेत्र और काल के अनुसार अमारि प्रवर्तन को अनेक नामों से जाना जाता है। जैसे- अगता, अक्ता, अहिंसा-दिवस, वध-निषेध दिवस, मांसरहित दिवस, मांसबंदी इत्यादि। जैन धर्म का महान सिद्धांत और मुख्य संदेश है कि मानव को निरीह पशु-पक्षियों का वध नहीं करना चाहिये और मांसाहार से दूर रहना चाहिये। जैन धर्म के इस अमर संदेश को आज सिद्धांततः कमोबेश सारी दुनिया में स्वीकार किया जाने लगा है। 
जैन समाज राजा से भी यह आग्रह करता है कि वह प्रजा और राज्य के व्यापक हित में हिंसा को राज्याश्रय नहीं दे। अमारि प्रवर्तन अहिंसा को राज्याश्रय अथवा राज्य के द्वारा अहिंसा के समर्थन में उठाया गया छोटा-सा किंतु महत्वपूर्ण कदम है। इस दिशा में जैन समाज और जैनाचार्यों ने ऐतिहासिक कार्य किया। आचार्य हेमचन्द्र (12वीं सदी), हीरविजयसूरि (16वीं सदी) और जैन दिवाकर मुनि चौथमलजी (20वीं सदी) की प्रेरणा से हुए अमारि प्रवर्तन के विपुल कार्य इतिहास में स्वर्णपृष्ठों पर अंकित हैं। वस्तुतः हर क्षेत्र और काल में जैन समाज के निवेदन और संतों की प्रेरणा से शासकों ने पर्युषण पर्व, महावीर जयंती, पार्श्वनाथ जयंती आदि के उपलक्ष्य में अमारि या अहिंसा-दिवस की राजाज्ञाएँ प्रसारित करवाईं। 
उल्लेखनीय है कि यह परम्परा सिर्फ जैन पर्वों तक ही सीमित नहीं रहकर भारत के अनेक महत्वपूर्ण पर्वों और महापुरुषों के साथ भी जुड़ी है। दीपावली, राम नवमी, जन्माष्टमी, बुद्ध पूर्णिमा, गणेश चतुर्थी, स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, गांधी जयंती, शहीद दिवस आदि अनेक महत्वपूर्ण पर्वों पर भी विभिन्न क्षेत्रों और प्रांतों में मद्यमांस-निषेध के राजकीय आदेश प्रसारित किये जाते हैं। किसी राज्य विशेष में उस राज्य के महापुरुषों के सम्मान में भी अमारि की घोषणाएँ की जाती हैं। जैसे तमिलनाडु में रामलिंगर जयंती और तिरुवल्लूर दिवस पर तो कर्नाटक में बसव जयंती पर कानूनन मांस-निषेध लागू किया जाता है। सिंधी समाज साधु वासवानी के जन्मदिन को मांसरहित दिवस मनाता है। 
अहिंसक तालाबंदी (अमारि प्रवर्तन) की यह उज्ज्वल परम्परा भारतीय समाज और संस्कृति में सदियों से स्वीकार्य और गतिमान रही है। बेहतर स्वास्थ्य, पर्यावरण रक्षा, करुणा आदि कई कारणों से वर्तमान में दुनिया के कई देशों और समाजों में भी पवित्र दिनों में सामूहिक मांस-निषेध का प्रचलन होता जा रहा है। 
मुझे भी अमारि प्रवर्तन के लिए काफी कार्य करने का सुअवसर मिला। इस पर कुछ लोगों ने सवाल उठाए कि सीमित क्षेत्र में सीमित अवधि के लिए हिंसा पर रोक से क्या फर्क पड़ता है? इस सवाल के समाधान में मैंने चार सूत्र दिये थे- 
1. हिंसा का अल्पीकरण भी अहिंसा है, 
2. हिंसा को स्थगित करना भी अहिंसा है, 
3. हिंसा की मांग को प्रतिबंधित करना भी अहिंसा हैं, और
4. हिंसा की पूर्ति को प्रतिबंधित करना भी अहिंसा हैं।
इस विषय में विशेष जानकारी के लिए पाठकों को लेखक का निबंध ‘अहिंसा-दिवस : परम्परा, उद्देश्य और महत्व’ देखना चाहिये। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित यह निबंध लेखक की बहुचर्चित पुस्तक ‘मानवता का सत्कार शाकाहार’ में भी उपलब्ध है।
समाज की सजगता और सरकारों की इच्छाशक्ति के अभाव में वर्तमान में अमारि प्रवर्तन की पुनीत परम्परा कमजोर हुई है। समाज, शासन और प्रशासन को मिलकर इस अहिंसक तालाबंदी को व्यापक, नियमित और मजबूत बनाकर प्रकृति और संस्कृति की रक्षार्थ अपना फर्ज निभाना चाहिये। और किसी चीज पर तालाबंदी (लॉकडाउन) हो न हो; बूचड़खानों पर तालाबंदी बेहद जरूरी है। प्रदूषण, अस्वच्छता, आतंक, महामारियों और बीमारियों से निजात पाने के लिए यह सर्वोŸाम उपाय है।   


व्यावसायिक तालाबंदी : 
जैन दिवाकर मुनि चौथमलजी ने भारतवर्ष की अहिंसा दिवस की परम्परा को बहुत विस्तारित किया, व्यापक बनाया, आगे बढ़ाया और इसे अनेक नवीन आयाम दिये। उनकी प्ररेणा से घोषित अगता के अंतर्गत केवल जैन पर्व ही नहीं, अपितु भारतीय संस्कृति के अनेक पर्व, पवित्र तिथियाँ और पवित्र मास सम्मिलित थे। सभी जातियों, वर्गों और धर्मों के व्यक्ति जैन दिवाकर जी के प्रति अपार श्रद्धा रखते थे। उनकी प्रेरणा से अगता के दिनों में तथा सांस्कृतिक महत्व की अनेक तिथियों पर कई लोग अपने व्यवसाय बन्द रखकर पर्व की आराधना करते थे। अनेक जगहों पर संकल्पित पवित्र तिथियों पर कुम्हार, तेली, भड़भूंजे, हलवाई, सुनार, सुथार, किसान, मोची आदि विविध काम-धंधे करने वाले लोग आस्था और इच्छा के साथ अपनी व्यावसायिक गतिविधियों को विराम देते थे। इससे मानव को तो अवकाश मिलता ही, साथ ही कामधंधे में सहयोगी बैल, ऊँट, घोड़े, गधे आदि पशुओं को भी विश्राम मिलता था। ग्राम, नगर और समुदाय के स्तर पर आश्रित मानव और मवेशियों के प्रति करुणा के साथ पारिवारिकता, सामाजिकता और आध्यात्मिकता को उत्कर्ष देने वाले इस उपक्रम को आज की भाषा में नियोजित व्यावसायिक तालाबंदी कह सकते हैं। 
जैन दिवाकर जी की प्रेरणा से शुरू हुई एक अभिनव परम्परा का राजस्थान के औद्योगिक नगर पाली में आज भी पालन किया जाता है। यहाँ पर्युषण पर्व के उपलक्ष्य में नौ दिनों तक सभी व्यवसाय, उद्योग और कारखाने बन्द रखे जाते हैं। दैनिक भास्कर, पाली (19 अगस्त 2017) के अनुसार पाली में लगभग 600 वस्त्र फैक्ट्रियाँ हैं, जिनमें 20 हजार श्रमिक काम करते हैं। पर्युषणकालीन अवकाश में किसी भी श्रमिक या कर्मचारी का वेतन नहीं काटा जाता है। मिठाई व नमकीन की करीब 300 दुकानें भी बंद रहती हैं। कई फल-सब्जी वाले भी अपना व्यापार बंद रखते हैं। सभी जाति व धर्म वाले स्वेच्छा से इस नियम का पालन करते हैं। 
जैन दिवाकर जी की प्रेरणा से ही सन् 1927 (वि. सं. 1984) में जोधपुर में समग्र जैन समाज द्वारा पर्युषण के आठ या नौ दिनों में सभी प्रकार के व्यवसाय बन्द रखने का निर्णय किया गया था। जोधपुर के जागरूक जैन समाज द्वारा वर्तमान में भी इस श्रेष्ठ नियम का पालन किया जाता है। दिवाकर जी के समय में ही एवं उनके बाद भी कई संतों की प्रेरणा और सामाजिक संकल्प के फलस्वरूप अनेक गाँवों, कस्बों और नगरों में इस नियम का विस्तार हुआ, जहाँ आज भी पर्युषण के आठ-नौ दिनों में नियमतः/निष्ठापूर्वक जैन समाज द्वारा सामूहिक रूप में व्यावसायिक प्रतिष्ठान बंद रखे जाते हैं। 
एक या दो दिवसीय व्यावसायिक अवकाश तो शनिवार, रविवार अथवा अन्य दिन के लिए होता ही है। भारत के कई गाँवों में पूर्णिमा, अमावस्या अथवा निर्धारित तिथि पर भी ऐसे सामूहिक व्यावसायिक अवकाश रहते हैं। किसी व्यवसाय विशेष वाले भी तय तिथि पर सामूहिक रूप से अपने व्यवसाय बंद रखते हैं। इन सबके अलावा सामाजिक और शासकीय स्तर पर अनेक पर्वों के उपलक्ष्य में अवकाश मिलता ही है। प्राप्त अवकाश का स्वाध्याय, सेवा, साधना आदि में उपयोग करके जीवन को सार्थकता प्रदान करनी चाहिये।  
जो लोग कहते हैं कि यह व्यावसायिक विश्राम (लॉकडाउन) तो साल में एकाध बार होना ठीक है, उन्हें अपने क्षेत्र और समाज में पर्युषण और अन्य पर्व-तिथियों पर ऐसे सामुदायिक नियम बनाने की दिशा में विनम्र पहल और ईमानदार प्रयास करने चाहिये। व्यक्तिगत स्तर पर अनेक सज्जन पर्व की विशेष आराधना करने के लिए अपने व्यवसाय से विश्राम लेते हैं, यह अनुमोदनीय है। लेकिन सामुदायिक स्तर पर ऐसे नियम का अधिक महत्व और व्यापक प्रभाव होता है। इससे सामाजिक शक्ति बढ़ती है और एकता की भावना पुष्ट होती है। इसलिए जहाँ इस प्रकार का नियम नहीं है, वहाँ संत भी प्रेरणा दे सकते हैं, जिससे सभी मिलजुलकर संघीय रूप में अपनी आध्यात्मिक साधना और सांस्कृतिक गतिविधियाँ सम्पन्न कर सके। 


निष्कर्ष : 
यहाँ तालाबंदी के दो स्वरूप बताए गये हैं। उनमें प्रथम अमारि प्रवर्तन को क्षेत्र, समय व संख्या की दृष्टि से अधिकाधिक व्यापक बनाना समय की मांग है और आवश्यकता भी। शासन और प्रशासन द्वारा लागू अहिंसक तालाबंदी (अमारि प्रवर्तन) सर्वजनहिताय, सर्वजीवहिताय और पर्यावरण-हितैषी है। कोरोना काल से सबक लेकर मांस-व्यवसाय और बूचड़खानों की तालाबंदी को विस्तारित किया जाना चाहिये और उसका पूर्ण अनुपालन सुनिश्चित किया जाना चाहिये।   
तालाबंदी का दूसरा स्वरूप निर्धारित अवधि के लिए सामूहिक व्यावसायिक अवकाश है। सामाजिक और नगरीय स्तर पर एक या एक से अधिक दिनों के लिए व्यावसायिक गतिविधियों को विश्राम देने की परम्परा भी उपयोगी व प्रासंगिक है। कोरोना काल में जो मजबूरी से किया और करवाया गया, उसे हमारे यहाँ सदियों से नियोजित रूप में किया जाता रहा है। जहाँ अहिंसा, संयम और आत्मानुशासन होता है, वहाँ कुदरती या कानूनी परानुशासन की आवश्यकता नहीं होती है। अतः श्रेष्ठ परम्पराओं तथा परम्परा की श्रेष्ठताओं को जीवंत, जयवंत और प्राणवंत बनाए रखा जाना चाहिये।  
(लेखक अंतरराष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन व शोध केन्द्र के निदेशक है)


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