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तहरीर,तक़दीर, तदबीर 



✍️आशीष दशोत्तर


इंसान को उसकी बातचीत के लहजे, सलीके या फिर लिखावट से पहचाना जा सकता है मगर उसे देख कर यह सारे पैमाने व्यर्थ हो गए। ऐसा इसलिए नहीं कि मैं उसे इन पैमानों पर परखने में नाकामयाब रहा बल्कि वक्त ने ही उसके लिए इन सारे पैमानों को बदल दिया।
दिखने में सामान्य से उस युवक की उम्र बीस वर्ष  होगी। जब पहली बार वह  सामने आया तो उसके पूरे शरीर पर सीमेंट चिपकी हुई थी । बाल भी सीमेंट में सने हुए थे और चेहरा भी लगभग ऐसा ही था। चेहरे से गिरती पसीने की बूंदें ज़रूर उसके चेहरे पर चिपकी सीमेंट में कुछ नमी ला रही थी, लेकिन इससे ज्यादा नमी उसके भीतर होगी इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।
अपने परिचित के यहाँ हो रहे निर्माण के लिए उनके साथ सीमेंट का आर्डर करने के लिए इस दुकान पर आना हुआ था। दुकान पर देखा तो दुकान मालिक वहां नहीं थे। वही युवक दुकान के बाहर बैठा था।
पूछा तो कहने लगा , सेठ अभी एक साइट पर माल उतरवाने गए हैं। कुछ ही देर में लौट आएंगे। आप बैठिए। पानी पीएंगे? उसकी यह शैली उसे सामान्य मजदूर से अलग कर रही थी।
'बाद में आ जाएंगे ।' इतना कहकर हम जाने के लिए  पलटे तो उसने पूछा, आपको क्या काम है। हमने कहा सीमेंट के लिए आर्डर लिखवाना था। पहले भी हमारे यहां सामान आ रहा है। उसने कहा, आप मुझे लिखवा दीजिए। मैं सेठ को आते ही बता दूंगा।
यह कहते हुए उसने दुकान की मेज पर पड़ी डायरी और कलम उठाई और लिखने लगा। जैसे ही उसने कागज़ पर कलम चलाना शुरु किया तो उसके मोतियों जैसे अक्षर देखकर एक पल तो हैरानी हुई और यह आश्चर्य भी कि मेहनत-मजूरी करने वाले इस युवक की लिखावट इतनी अच्छी कैसे हो सकती है। दूसरा आश्चर्य यह देखकर हुआ कि उसने डायरी में जो कुछ लिखा था उसमें मात्राओं की गलतियां न के बराबर थी ।आमतौर पर ऐसे काम में लगे लोग भाषा और मात्राओं का ध्यान नहीं रखते ,मगर उसके साथ ऐसा नहीं था।
यह देख सहसा मेरे मुंह से निकल गया , तुम्हारी लिखावट तो बहुत अच्छी है। वह कहने लगा, लेकिन किस काम की?  इन हाथों को तो सीमेंट की बोरियां ही उतारना है, जो उतार रही है।
उसकी इस बात में हमें शर्मसार तो किया ही चिंता में भी डाल दिया। पूछने पर कहने लगा , वह पढ़ा-लिखा है। नौकरी की तलाश में काफी भटकता रहा। पिछले साल दीपावली के बाद शहर के बाहर एक कंपनी में नौकरी मिली और लग रहा था कि सब कुछ ठीक हो जाएगा। इतने में ही लाकड़ाउन हो गया। कंपनी बंद हो गई ।
मुझे घर लौटना पड़ा। घर पर कोई काम नहीं। तीन माह कैसे गुज़ारे मेरा दिल जानता है । जब लॉकडाउन खत्म हुआ तो फिर कुछ कोशिश की। मगर काम मिला तो गाड़ियों से सीमेंट की बोरी उतारने और चढ़ाने का।
अब आप ही बताएं  कहां मेरी पढ़ाई । कहां मेरी लिखावट। कहां मेरी बातचीत, मेरी ज़िंदगी में काम आ रही है । वह ये सारी बातें एक रौ में कह गया और फिर सीमेंट की गाड़ी से बोरियां उतारने में लग गया । कहने लगा आप जाइए ,आपका माल कुछ ही देर में आपके यहां पहुंच जाएगा ।
हम वहां से लौट तो आए मगर उस युवक का चेहरा और उसकी बातें अपने साथ ले आए । उसकी  तहरीर,तक़दीर और तदबीर हमारे जेहन में घूमती रही। उसकी भाषा हमें बार-बार कचोटती रही । इस बुरे वक़्त  में  उसके जैसा कोई युवक  दिख जाता है तो आंखों के सामने  उसकी तहरीर उभर आती है ।
*ऱतलाम


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