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अभिलाषा



✍️ संगीता गुप्ता


हर स्त्री दिखना चाहती है खूबसूरत ,

उम्र के हर मोड़ पर ।

देखकर विज्ञापन झुर्री मिटाने के ,

ले आती है एक आध ट्यूब 

करती है बालों को डाई 

छुपाती उम्र की परछाई 

क्योंकि खूबसूरत दिखना

स्त्री का नैसर्गिक गुण है।

 

हर स्त्री सजाना चाहती है जूड़े में फूल

ताकि महक जाए

उसका भी अंतस कुछ पलों के लिए ।

हींग और हल्दी की गंध भूल।

   

जानती है कि चश्मा ही है

अब उसकी आंखों का गहना ,

पर फिर भी खींचती है काजल की लकीर 

सजाती है लाइनर से पलके 

तैर रहे हैं अभी भी

जिनमें आधे अधूरे सपने। 

    

कंपकंपाते ओंठों पर भी

फेरती है लिपस्टिक।

नकली बत्तीसी से

निकलती असली हंसी।

कितनी निष्पाप बच्चे की तरह

बुदबुदाती दुआएं।

 

नानी ,दादी या परदादी बन कर भी 

उम्र की भले ही कितनी भी दुहाई दे ले

पर हर साड़ी की सेल देख मचल जाती है 

सावन में लहरिया पहन 

भीगना चाहती है

अपने ब्यावले साल की तरह ।

 

स्त्री मृत्युपर्यंत छिपाए रखती है

नवयौवना का मन

जो हमेशा सजना चाहता है,

महकना चाहता है, 

मचलना चाहता है।

पर कर्तव्यों की वेदी के

नीचे छुपा लेती है 

अपनी सिर सौंदर्य की अभिलाषा,

क्योंकि उसे परिपक्व दिखना है 

समाज के हाशिए पर फिट बैठना है,

    

पर फिर भी वह दुनिया से

सुहागन ही जाना चाहती है ,

सज कर लाल लाल सिंदूर और चूड़े में ।

    

स्त्री मरती है,

नहीं मरती उसकी 

अपने को सजाने की अभिलाषा

क्योंकि भगवान ने ही

दिया था उसे सुंदर दिखने का वरदान ।

उसका नैसर्गिक अधिकार।

 


*जयपुर (राजस्थान)

 


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