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प्रेमचन्द के हंस का संजय



 

*डॉ अवधेश कुमार अवध

सांस्कृतिक पतन के दौर में पूर्वजों को नाकाम, असफल, अयोग्य, अकर्मण्य, अप्रगतिशील और न जाने क्या- क्या कहने का चलन बढ़ गया है। वेदव्यास, कबीर और तुलसी को गरियाने की परम्परा में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और प्रेमचन्द को भी घसीटा जाने लगा है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस कुकर्म में तथाकथित इनके अपने ही शामिल हैं, कोई गैर नहीं।

स्वातन्त्र्य संग्राम में कभी धनपत राय, कभी नवाब राय, कभी प्रेमचन्द और कभी मुंशी प्रेमचन्द के नाम से एक ही कलम का सिपाही गोरों की बुनियाद हिलाता रहा, सामाजिक चेतना जगाता रहा और इसमें अंतिम हथियार बना हंस।

हंस से जुड़ने के पूर्व भी प्रेमचन्द जी की कहानियाँ और उपन्यास अंग्रेजों के लिए किरकिरी थे। भारी विरोध, गिरफ्तारी, जेल में आना-जाना तथा किताबों को जलाये जाने का सिलसिला उनके जीवन के अभिन्न अंग थे। इसी क्रम में सन् 1930 में हंस का प्रकाशन शुरु हुआ। साथ में जुड़े थे प्रसिद्ध लेखक कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी जिनका मुंशी हंस के संपादन में प्रेमचन्द के साथ जुड़कर मुंशी प्रेमचन्द हो गया था। हंस की ख्याति हिंदी साहित्य जगत में आँधी की तरह व्याप्त हो गई। मगर काल को कुछ और ही मंजूर था। सन् 1936 में इस उपन्यास सम्राट के देहावसान के साथ हंस को विराम लग गया।

न रहते हुए भी साहित्य के आँगन में हंस पत्रिका सदैव सर्वोच्च स्थान पर काबिज रही जबकि प्रेचंद के पुत्र अमृत राय और पुत्रबधू सुधा चौहान साहित्य सृजन से जुड़े होने के बावजूद भी हंस के पुन: प्रकाशन पर ध्यान नहीं दे सके। सुविख्यात कथाकार और सम्पादक राजेन्द्र यादव हंस के प्रति बेहद संजीदा थे। 1980 में राजेन्द्र जी ने प्रेमचन्द की तीसरी पीढ़ी के साथ अनुबंध करके हंस का प्रकाशन पुन: शुरु किया। हंस का नाम ही काफी था और उसपर राजेन्द्र यादव का सम्पादन सोने पर सुहागा हो गया।

हंस के सुहाने सफर में सन् 1990 में एक मोड़ तब आया जब बिहार निवासी रेलवे विभाग के एक बड़े ठेकेदार ने एक लिफाफे में 25000 रुपये के साथ एक कहानी भेजी। हंस के सम्पादक को दोनों पसंद आए। बाद में उस कहानी (शायद संपादक की लेखनी ने खुद भी कमाल किया हो) पर पतंग फिल्म बनी। फिर तो उस ठेकेदार/ कहानीकार का हंस के साथ लगाव बढ़ता गया।

बढ़ती अवस्था ने राजेन्द्र यादव को हंस के सुचारु प्रकाशन को लेकर चिंता में डाल दिया। उनको उनकी बेटी रचना को भी हंस में स्थापित करना था जो अकेले इस गुरुतर दायित्व को निभाने में  सक्षम नहीं थी। संपादक जी ने कई पार्टियों से बात की और परिणाम स्वरूप रचना को संपादक और उस ठेकेदार/कहानीकार को प्रबंध संपादक बनाया गया जो बाद में आपस में पद विनिमय कर लिये। वर्तमान समय में हंस के संपादक वही ठेकेदार/कहानीकार, प्रबंध सम्पादक और फिर प्रधान संपादक हैं जिनका शुभ नाम संजय सहाय है।

विगत 20 जून 2020 से संजय सहाय जी अपने एक बयान के द्वारा सुर्खियों में हैं। हों भी क्यों न!  जिस प्रेमचंद को राजेन्द्र यादव ने सदा हंस के संस्थापक का सम्मानित दर्जा दे रखा था, एक झटके में संजय ने उसी हंस का संपादक रहते हुए प्रेमचन्द की कहानियों को (20-25 छोड़कर) कूड़ा- करकट और स्त्री विरोधी भी कह डाला।

अमरबेल संजय ने प्रेमचन्द के प्रचुर लेखन को पढ़ा भी है या नहीं, संदेह है। प्रेमचंद आज भी हिंदी साहित्य में सबसे चाव से पढ़े जाते हैं। देश और विदेश की हर प्रमुख भाषाओं में इनका साहित्य अनूदित है। प्रेमचंद के अधिकतर पात्र अमर होकर अभी भी समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं।

सेवा सदन की शांता, रंगभूमि की सोफिया, गबन की जालपा, निर्मला की निर्मला, गोदान की डॉ मालती, झुनिया और धनिया आज भी अमर हैं। पंच परमेश्वर, शतरंज, दो बैलों की जोड़ी, रसिक संपादक, कफन, ईदगाह, पूस की रात, गुल्ली डंडा, मन्त्र, नमक का दारोगा जैसी दर्जनों कहानियाँ आज भी प्रासंगिक हैं। देश काल और वातावरण में परिवर्तन ने कुछ असर डाला है जो नगण्य है इसके विपरीत संजय का साहित्यिक अस्तित्व तो अभी शून्य से ऊपर का नहीं है और हंस को जिस स्तर पर ले आये हैं, लज्जास्पद है।

राजेन्द्र यादव ने स्त्री विमर्श को जो दिशा दी थी, संजय आँख मूँदकर उससे भी आगे निकलते गए। इन लोगों का स्त्री विमर्श 0.01 प्रतिशत स्त्रियों के साथ जुड़ा है। इनकी "स्त्री" भारतीय संस्कृति और संस्कार में अपने को स्थापित नहीं करती बल्कि पुरुषत्व को जलील करती है, सड़कों पर नंगे घूमती है, बिस्तर पर रोज नये पार्टनर बदलने की मुहिम चलाती है, स्त्रियोचित शारीरिक संरचना के लिए भी पुरुष को दोषी मानती है, स्वच्छंद व्यवहार की वकालत करती है, विवाह करके बच्चा जनने और पालने को गुलामी बताती है । इनकी "स्त्री" कभी जीवन की मूलभूत आवश्यकता पर सवाल नहीं उठाती, सामाजिक समरसता की पैरवी नहीं करती, संस्कृति के पोषण की बात नहीं करती, लैंगिक संरचना विभेद को स्वीकार नहीं करती। समाज में उचित बदलाव की वकालत नहीं करती बल्कि स्वयं को उच्च और अन्य को नीच समझने की पक्षधर होती है, दूसरी स्त्रियों का शोषण करती है।

प्रेमचन्द की बुधिया ने गोदान का विकल्प निकाला, झुनियाँ ने मिस मालती के अनुसरण का प्रयास किया, जालपा ने आभूषण-मोह के नैसर्गिक गुण को त्यागकर नवीन पथ चुना, निर्मला ने यथा सम्भव परिवार को जोड़ना चाहा और हामिद की दादी ने पोते में सर्वोच्च संस्कार डाले। ये सब शायद संजय के मानस को नहीं भाते....उनकी "स्त्री" के लिए ये सब कूड़ा करकट हैं। अन्तत: एक सुझाव है संजय बाबू। कोई अमरबेल मूल वृक्ष को झुकाकर ऊपर नहीं जा सकती। ज़रा सोचो न संजय बाबू!

(ये लेखक के निजी विचार है)

 


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