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प्रकृति है सृजन



*प्रफुल्ल सिंह 'बेचैन कलम'

 

जब से तेरी देह को छू आये हैं नयन

भूल गया हूँ भोजन भूल गया शयन

 

लगता है तेरी देह को छू आई है पवन

महक उठी है साँसे बहक गया ये मन

 

छूती मेरी उंगलियाँ जब भी तेरा तन

लागे जैसे बाँसुरी को चूमते किशन

 

वन में खोजे कस्तूरी भटक रहा हिरन

लगाले तू गले और मिटा दे ये अगन

 

भँवरे की छुअन से खिल जाने दे सुमन

सृजन है प्रकृति प्रकृति है सृजन। 

*लखनऊ, उत्तर प्रदेश

 


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