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मंदिर में तुम उसे पूजते



*अशोक मिश्र


और रस्ते में चीर -हरण,

रावण के पापाचारों में

दोषी सोता कुंभकरण।

पत्थर का पूजन-वंदन

और मानवी को छलते,

मैला करते उस आँचल को,

जिसकी ममता में पलते।

कभी अहिल्या, कभी जानकी,

कभी द्रौपदी रोई है

तेरे ही कुछ कपट-जाल में,

कहीं निर्भया खोई है।

कैसे पाषाणी दोषी है

और यह गौतम दूध धुला,

इन्द्रसभाएं कहाँ बंद हैं,

ओ उद्वारक प्रश्न खुला।

नहीं सुरक्षित रही कोख में,

नहीं सुरक्षित डाली पर,

डरा-डरा बचपन रहता है,

प्रश्न-चिन्ह है माली पर।

हर आहट में एक त्रास है,

सन्नाटे में भी डर है,

चेहरा-चेहरा लगे दुःशासन,

किसे कहे वह रहबर है।

उसे चाहिए पालन-पोषण,

नेह-गेह और शीतल छाँव,

डरी-डरी है सोन चिरैया,

बध शाला है तेरा गाँव।

*जौनपुर, उ.प्र.

 


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