Subscribe Us

खुशी के आँसू



*सुषमा दिक्षित शुक्ला


बात उन दिनों की है ,जब मेरा चयन बतौर अध्यापिका एक ऐसे विद्यालय में हुआ जो पहले से शिक्षक विहीन हुआ करता था। अतः मैं उस विद्यालय की पहली अध्यापिका । थी मेरे साथ ही एक नए शिक्षक की भी विद्यालय में नियुक्ति हुई थी ।विद्यालय के वह शुरुआती दिन मुझे कभी नहीं भूल सकते ,जब मेरा ऐसे शैतान और अनुशासन विहीन बच्चों से सामना हुआ या यूं कह सकते हैं कि ऐसा बिगड़े हुए बच्चों से सामना हुआ जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी। उस विद्यालय का संचालन मुझसे पहले कई प्रशिक्षु शिक्षकों द्वारा स्थाई तौर पर होता था, सुना है कि मुझसे पहले उस विद्यालय में अस्थाई नियुक्ति वाले प्रशिक्षु शिक्षक विद्यालय छोड़कर, बच्चों की उद्दंडता एवं शैतानी भरे आतंक से भाग खड़े होते थे।
शुरुआती दिनों में मेरा भी मन यही आया कि नौकरी छोड़कर भाग जाऊं मगर क्या करती मेरी नियुक्ति शासकीय शिक्षिका के तौर पर स्थाई रूप में हुई थी तो वहां रुकना नितांत आवश्यक बन गया था । जिस गांव में मेरी नियुक्ति हुई वहां एक ही वर्ण के लोग रहते थे। जातिवाद का बोलबाला था वहां के  ज्यादातर अशिक्षित ग्रामवासी व बच्चों के अभिभावकों ने बच्चों के बाल मन में जातिवाद एवं संप्रदाय वाद की भावना का इतना गहरा जहर भर दिया था कि बच्चे हर दूसरी जाति का मजाक उड़ाते थे ।ऊपर से विद्यार्थियों वाला कोई भी शिष्टाचार उनमें नहीं दिखा। चोरी करना ,लड़ाई झगड़ा, झूठ बोलना ,छोटे-छोटे बच्चे बीड़ी और गांजा पीते थे ।शिक्षक कोअपमानित करना उनकी आदत में शामिल था ।उनको देखकर तो लगता ही नहीं था कि यह विद्यार्थी भी हैं ।काफी मैले  कुचैले भी रहते थे ।
मेरे लिए बच्चों को अनुशासित करना ,शिक्षा देना ,नैतिकता का आचरण सिखाना एक बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य बन चुका था। हालांकि मेरे पति मेरे हर कार्य में सहयोग देते थे ।उसी प्रकार इस पुनीत कार्य में भी उन्होंने बराबर सहयोग दिया ,और मेरे साथ  विदयालय नित्य जाकर मेरा मार्गदर्शन एवं हौसला अफजाई करते रहे। मेरे दूसरे शिक्षक साथी भी अपनी जिम्मेदारी का पालन करते हुए बराबर सहयोग करते रहे ।
फिर प्रारम्भ हुआ मेरा शिक्षण  एवं सुधार कार्यक्रम। कभी प्यार से ,कभी डांट से ,कभी मार से ,मैंने लगभग 1 साल में विद्यार्थियों को विद्यार्थी जीवन की धारा पर लाकर खड़ा कर दिया। जिसके लिए काफी मेहनत मशक्कत करनी पड़ी। नैतिकता के आचरण में ढालने के लिए रोज एक या दो कहानी सुनाती थी, उनके साथ खेलती तक थी ।
मैंने पूरी तरह से मनोवैज्ञानिक शिक्षण  प्रणाली को अपनाकर उनके मनोबल को विकसित किया। फिर क्या था सकारात्मक नतीजे आने लगे ,धीरे-धीरे उन्हें ऐसा बदलाव हुआ कि मैं या कोई दूसरा सोच भी नहीं सकता था।मात्र 1 साल में वह विद्यार्थी बदल चुके थे ।वे सब व्यवहार कुशल, शिष्ट ,पढ़ने में तेज ,आज्ञाकारी और ईमानदार बन चुके थे ।आपसी प्यार ,गुरु का सम्मान, बड़ों का सम्मान ,विद्यालय संबंधी सारे कार्यों में रूचि उनमे विकसित हो चुकी थी ।साफ सुथरे होकर समय से विद्यालय आना,सर्वप्रथम विद्यालय में प्रवेश करते ही विद्या की देवी सरस्वती को नमन करना, फिर गुरु को चरण स्पर्श करना ,अपने सारे विद्यालय संबंधी कार्य पूर्ण करना उनकी आदत बन चुकी थी ।एवं मेरे वही बच्चे मुझे  अति प्रिय बन चुके थे, और मैं उनकी अजीज टीचर । फिर तो वे सब मेरा इंतजार करते थे कि जल्दी से सुबह स्कूल का समय हो और मेरी प्यारी मैम जल्दी से स्कूल आएं  ।वही बच्चे पढ़ाई से लेकर ,खेल एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों मे काफी प्रगति कर चुके थे ।
 धीरे-धीरे  समय बीतता गया ।अब वही बच्चे  बड़े हो चुके हैं ,बड़ी  कक्षाओं मे   पहुचने के कारण माध्यमिक विद्यालयों मे पढ़ रहे हैं ।वहाँ भी वह अच्छे बच्चे माने जाते हैं ,मेरी याद भीकरते रहते हैं , क्योंकि कभी-कभी उनमें से कोई कोई बच्चे आ जाते हैं मुझसे मुलाकात करने मेरे चरणों में अपना शीश नवाने ।तब मैं  उनको ,उनकी वह शैतानियां याद दिलाकर कहती हूं ,,,तुम इतना कैसे बदल गए मुझे अभी भी यकीन नहीं होता ,,,।आज भी एक टीचर होने के नाते अपने शिष्यों के सकारात्मक बदलाव को देखकर मेरी आंखों से खुशी के आंसू  बरबस ही निकल पड़ते हैं । मैं परमात्मा को धन्यवाद देती हूं जिन्होंने मुझे इस पुण्य कार्य का महान दायित्व सौपा ।
*लखनऊ


 


अपने विचार/रचना आप भी हमें मेल कर सकते है- shabdpravah.ujjain@gmail.com पर।


साहित्य, कला, संस्कृति और समाज से जुड़ी लेख/रचनाएँ/समाचार अब नये वेब पोर्टल  शाश्वत सृजन पर देखेhttp://shashwatsrijan.com


यूटूयुब चैनल देखें और सब्सक्राइब करे- https://www.youtube.com/channel/UCpRyX9VM7WEY39QytlBjZiw 


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ