*प्रो.शरद नारायण खरे
मीना सिसकती-कराहती हुई अभी घर लौटी थी,और एक कोने में बैठी विलाप कर रही थी । वह अपने संगीत के गुरू व धर्मपिता पुरोहित साब के हाथों अपनी इज़्ज़त गंवाकर आई थी ।
वह साल भर पुरानी यादों में खो गई जबकि इक्कीस वर्षीय उभरती गायिका मीना ने एक बड़ी संगीत प्रतियोगिता में भाग लिया था ।
"वाह मीना वाह,तुम्हारे गले में तो साक्षात् सरस्वती का वास है । बस तुम्हें कोई अच्छा सा गुरु और प्रमोटर मिल जाए,तो देखना तुम कहां से कहां पहुंच जाती हो ।"
"पर मुझ जैसी गांव की लड़की को गुरु व प्रमोटर कहां मिलेगा ?"
"तुम जैसी होनहार गायिका का तो गुरु कोई भी बन जाएगा ।"
"क्या,आप बनेंगे ?"
"हां-हां,क्यों नहीं ?"
और आज उन्हीं गुरु,प्रमोटर व धर्मपिता पुरोहित जी ने मीना को आगे बढ़ाने के नाम पर अपनी हवस का शिकार बना डाला था ।लुटी-पिटी मीना सरस्वती साधक और संगीत के पुजारी प्रौढ़ गुरु पुरोहित जी के चेहरे पर लगे चेहरे को देख रही थी ।आज वह इस कटु सत्य को समझ चुकी थी कि आदमी की असलियत वह नहीं होती है,जो दिखती है,बल्कि वह होती है,जो छिपी होती है ।
*मंडला(मप्र)
अपने विचार/रचना आप भी हमें मेल कर सकते है- shabdpravah.ujjain@gmail.com पर।
साहित्य, कला, संस्कृति और समाज से जुड़ी लेख/रचनाएँ/समाचार अब नये वेब पोर्टल शाश्वत सृजन पर देखे- http://shashwatsrijan.com
यूटूयुब चैनल देखें और सब्सक्राइब करे- https://www.youtube.com/channel/UCpRyX9VM7WEY39QytlBjZiw
0 टिप्पणियाँ