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चापलूसी का गुण



*उदित नागर


आज से लगभग सौ वर्षों पूर्व हिंदी के एक मूर्द्धन्य विद्वान ने “ श्रद्धा और भक्ति “ पर निबंध लिखा था , इस निबंध में उन्होंने कुछ मानवीय गुणों की व्याख्या की थी | उन्होंने मानवों के एक अत्यन्त लाभकारी एवम् लौकिक गुण “ चापलूसी “ को छोड़ दिया था ,आज मैं आपके आशीर्वाद से इसी गुण पर प्रकाश डालूँगा |
“ चापलूसी “ जैसा कि इस शब्द के उच्चारण से ही प्रतीत  होता है कि यह एक रसमय और आनन्दमय शब्द है  | “ लू “ को उच्चारित करते समय  अधरों के गोल होते ही मुँह में लार का प्रवाह आरम्भ हो जाता है और “ सी “ के पूर्ण होते ही पूरा मुँह रसमय हो जाता है | श्रद्धा और भक्ति मानव के ऐसे गुण हैं जो त्वरित फल नहीं देते हैं , ये गुण परलोक संवारने के लिए ही उपयोगी हो सकते हैं | परन्तु लौकिक और लाभकारी गुण चापलूसी से इहलोक सुधरता है , इसका होना आजकल परम आवश्यक  है |
भारतवर्ष में चापलूसी की प्रथा या कला बहुत प्राचीन काल से चली आ रही है  | पुराने काल में राज-दरबारों में प्राय: भाटों ( वेतनभोगी चापलूस ) को रखा  जाता था , इनका कार्य राजा की स्तुति गान करवा और राई का पहाड़ बनाना हुआ करता था | इस कला को परिष्कृत किया महान चाटुकार बीरबल ने , उसने इस कला को नयी ऊँचाइयाँ देते हुए इसके सरकारीकरण की शुरुआत की और इसके प्रमाण आज भी स्पष्ट देखे जा सकते हैं | इस कला को नये आयाम मिले अंग्रेजों के राज में , इस काल में ये कला अपने चरम पर पहुँच गई | कई लब्ध प्रतिष्ठ लोगों ने इस कला के सधे हुए प्रयोग से बहुत ज़मीन- जायदाद खड़ी कर ली और सर , राय साहब एवम् राय बहादुर जैसी उपाधियाँ प्राप्त कर अपने वंश को गौरवान्वित किया | यह चापलूसों का एक प्रकार से स्वर्णिम काल था , इस काल में चापलूसों ने ही चापलूसों की पीठ को थपथपा कर एक दूसरे को महात्मा , गुरुदेव और पंडित जैसी उपाधियाँ तक दे डालीं | इसके पश्चात तो जैसे इस गुण के मानवों का कायाकल्प ही हो गया | स्वतन्त्रता से पहले अंग्रेज “चापलूसेय “ थे तो भारतीय चापलूस , जो स्वतंत्र भारत में “ चापलूसेय “ बन कर सत्ता-सुख भोगने लगे | हमारे स्वतंत्र भारत की नींव भी इन्हीं “ चापलूसेयों “ने रखी थी और माँ भारती को कृत कृत किया |
जिस प्रकार श्रद्धालु का श्रद्धेय से , भक्त का भगवान से अटूट संबंध होता है वैसा ही संबंध चापलूसेय और चापलूस का होता है | यह लौकिक मानवीय गुण प्राय: पृथ्वी के सभी प्राणियों में पाया जाता है , इस गुण के अभाव से प्राणी भौतिक जगत के सुखों से वंचित रह जाता है | यह एक अति उत्तम परिवर्तनीय मानवीय गुण हैं जो “ चापलूसेय “ के पद , शक्ति एवम् प्रभाव के अनुरूप एक श्रेष्ठ चापलूस स्वयं को ऐसे रूपांतरित कर लेता है कि कृकलास: ( गिरगिट को संस्कृत में कृकलास: कहा जाता है )भी लज्जित हो जाए | मैं गिरगिट शब्द का प्रयोग कर चापलूसी सरीखे लौकिक और महान गुण का अपमान नहीं कर सकता | वैसे तो इस देश में नैसर्गिक “ चापलूसेयों “ की कमी नहीं है तदुपरांत एक श्रेष्ठ चापलूस वह पारस है जो निष्ठुर को भी “ चापलूसेय “ में परिवर्तित कर देता है | हमारे देश की संपूर्ण व्यवस्था में इन्हीं लोगों का वर्चस्व है | यह एक ऐसा चक्र है जो मानवों को मानव के प्रति निष्ठावान बनाता है जो कि मानव की भौतिक उन्नति ( वेतन वृद्धि , पदोन्नति वग़ैरह ) में सहायक  सिद्ध होता है | मानव के इस लौकिक और महान गुण ने सरकारी उपक्रमों और विभागों के अतिरिक्त निजी संस्थानों पर भी अपना प्रभुत्व स्थापित किया है | एक घाघ चापलूस बड़ी चतुरता के साथ अपना कार्य का निष्पादन करता है , वह अपनी कार्य कुशलता के स्थान पर वाक्पटुता का प्रयोग करता है और अपने प्रतिद्वंद्वियों को परास्त करता है | इस कार्य में वह चापलूसी के साथ चुग़ली के बहुत ही संतुलित मिश्रण का चतुराई से प्रयोग कर सफलता प्राप्त करता है  | कई बार तो स्वयं ही अपने प्रतिद्वंद्वी के समक्ष  अपने चापलूसेय के प्रति अपशब्दों का प्रयोग कर दोष को अपने प्रतिद्वंद्वी के सर मढ़ देता है | इस समय निजी संस्थानों में तो  चापलूसी अपने संपूर्ण निराकार स्वरूप के साथ प्राणियों में वास करती है | चापलूसों के प्रभाव को बखान करता एक प्रशस्ति गान भी है जिसके महान रचयिता के विषय में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है , जो निश्चित ही कोई अत्यन्त मेधावी और बहुमुखी प्रतिभा का धनी चापलूस रहा होगा | यह गान 70 के दशक से प्रचलित है जो इस प्रकार है |  ( अधोलिखित गान मैंने सर्वप्रथम 1968 में अपनी पहली नौकरी , जो एक निजी संस्थान में थी , के प्रारम्भ में ही श्रवण किया था | )
काम मत कर काम की फ़िक्र कर ,
इस फ़िक्र का ज़िक्र अपने अफ़सर से कर |
काम मत कर काम की फ़िक्र कर ,
जो काम करें उसकी चुग़ली कर |
काम मत कर काम की फ़िक्र कर ,
और जो काम करें उसके काम में उँगली कर |
आजकल निजी संस्थानों  में चापलूसी का इतना व्यवसायीकरण हो चुका है , इस क्षेत्र में प्रबंध संस्थानों के प्रशिक्षित लोग प्रवेश कर गये हैं | यह लोग मात्र प्रबन्धन देखते हैं , वो भी सिर्फ़ पन्नों पर | ये केवल अपने मालिक को ही चापलूसेय मानते हुए कई बार अपने वरिष्ठ  साथी का भी आखेट कर लेते हैं , जो उन्हें अवसर देता है | ये मात्र मालिक को प्रसन्न करने के लिए कटिबद्ध रहते हैं , चाहे फिर संस्थान की शव यात्रा ही क्यों  न निकल जाए  पर ये अपने धर्म पथ से विमुख नहीं होते हैं |
ऐसा नहीं है कि इसका महत्व सिर्फ़ सरकारी या निजी संस्थानों में ही है ,अपितु ये पारिवारिक जीवन में भी अभीष्ट फल देने वाला चमत्कारिक गुण है |  शेष वो , जो दोहरे व्यक्तित्व के साथ भी सुखी विवाहित जीवन व्यतीत कर रहे हैं , जानते ही हैं इसकी महिमा | वामांगिनी से मुँहजोरी नहीं करना भी इसी दैवी गुण की विशेषता है |
आज आपने इस लौकिक , महान और चमत्कारी मानवीय गुण की महत्ता को समझा , परम पिता से मेरी प्रार्थना है कि आपके जीवन में भी इस दिव्य गुण का प्रादुर्भाव हो और आप भी सफलता के नित नये क्षितिज को छुएँ |  इसी सद्भावना एवम् शुभकामनाओं  सहित |


*रतलाम


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