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वेदना सुजल



*ब्रह्मानंद गर्ग सुजल

 

सुबह जाता हूँ टहलने 

उषा की रंगत बिखरने से पहले 

अक्सर देखता हूँ 

मानवता का शर्मनाक दृश्य 

बचपन नालियाँ करता साफ

कैसा होगा इनका भविष्य। 

ये नियति है इनकी

या ईश्वर का विधान

दैवीय शक्ति भला

कर क्यों नहीं पाती

इनकी पीड़ा का उत्थान। 

कुम्हलाते बचपन को

देखता हूँ तो

झुक जाती निगाह लज्जा से।

धिक्कार है ऐसी व्यवस्था पर

एक नहीं बार बार

जो कर नहीं पाती समुचित 

उद्धार खोज नहीं पाती हल। 

हम हो चुके संवेदना शून्य 

जीवित जैसे मृतक समान

पैशाची इच्छाएं बढ़ती जाती

सोच कहाँ पाते पर हित भाव। 

क्रुरता की सीमाएँ 

तोड़ चुकी मर्यादाएँ सारी

वीभत्स हो रही 

लालसा मन की

नित होती मानवता शर्मसार।। 

*जैसलमेर(राज)

 


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