*रेशमा त्रिपाठी
“कविता समय की धड़कनों को प्रस्तुत करती हैं यहीं उनकी जीवंतता भी होती हैं । समय से संवाद की अनुभूतियां अभिव्यक्त होकर कुछ पाने का हर्ष करती हैं, तो कुछ खोने का विषाद भी ।" डॉ बारेलाल जैन जी के इस कथन पर प्रकाश डाले तो ऐसा लगता हैं कि मीडिया का कोई पत्रकार अपनी बात को यथार्थ में सिद्ध करने का प्रयास कर रहा हैं । किन्तु वर्तमान समय में कविता की दशा फुटपाथों पर से होकर मानों गुजर रही हैं आज के समय में कवि को कविता की जीवंतता का मर्म संजोकर रख पाना संघर्षपूर्ण हो गया हैं ।इसका एक कारण मीडिया का गिरता हुआ स्तर भी हैं ।प्रेस की स्वतंत्रता पर नजर रखने वाली संस्था – ‘रिपोर्टर विदाउट बाॅड़र्स ' सूचकांक 2020 की रिपोर्ट की मानें तो 180 देशों और क्षेत्रों के सूचकांक में भारत को 142 वां स्थान प्राप्त हैं ।जो कि लोकतांत्रिक मूल्यों एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता,राष्ट्र के निर्माण के संदर्भ में चिन्ता का विषय हैं जबकि प्रेस समाज के प्रति अपनी एक जवाबदेही सुनिश्चित करती हैं ।ठीक वैसे ही जैसे एक कवि अपनी कविता की ।
किन्तु दोनों के गिरते स्तर का कारण कहीं कवि एवम् मीडिया स्वयं जिम्मेदार तो नहीं ।इस विषय पर दोनों को ही पुनः विचार करना चाहिए । ऐसा इसलिए की देश को आजाद कराने में जितना योगदान वीर जवानों ,शहीदों का हैं उतना ही योगदान कवि कि कविता और मीडिया का भी ।दोनों ने जन– जन को प्रेरित किया ,जोश भरे ।इस उम्मीद के साथ की लोग सकारात्मक दृष्टिकोण आगे आयेंगे और आजादी दिलाने में अहम भूमिका निभायेंगे ।जो कि कारगर भी साबित हुआ । किन्तु वर्तमान समय में किसी विद्वान की पंक्ति को पढ़ने से पहले उसे तोड़– मरोड़ कर लोग सोशल मीडिया पर प्रचार – प्रसार करते हैं अलग– थलग कर लोग अपने भावों अनुसार जातिगत, धर्मगत कर उसकी व्याख्या प्रस्तुत कर लेते हैं । यहीं से कविता का हनन, गिरता हुआ स्तर और फुटपाथों पर बिकने को विवश हो जाती हैं । यथार्थ रूप में पढ़ना,समझना, समझाना इस बदलते परिवेश में मुश्किल हो गया हैं । किन्तु कवि का काम ही हैं कि वह अपनी कविता के माध्यम से लोगों में जागरूकता,सत्य–असत्य का बोध,अनुभूति जो लोगों में प्रतिपल जीवन्त हो ऐसा भाव जागृत करना हैं यही कारण हैं कि कहा जाता हैं –‘ कवि कभी मरता नहीं' उनकी पंक्ति सदैव वर्तमान में जीवंत रहती हैं –
“ झूठ–सांच दोऊ चले,अपनी– अपनी गैल ।
सिंहासन आरूढ़ इक, इक कोल्हू का बैल ।।"
यह पंक्ति डॉ बारेलाल जैन जी की प्रजातंत्र पर सवाल खड़ा करती हैं,राजा एवम् प्रजा के बीच अन्तर भी स्पष्ट कर देती हैं इसी प्रकार प्रतिदिन शिक्षा के गिरते स्तर पर भी इनकी पंक्तियां सवाल /जवाब कर चोट करती हैं –
“ पढ़ –पढ़ कर ली डिग्रियां,इंटरव्यू भी खूब ।
दाम तंत्र के सामने,गई योग्यता डूब ।।"
गौरतलब हैं भारत के साक्षर भारत से शिक्षित भारत तक के इस सफर में यह एक चिंता का विषय हैं इसका दूसरा कारण यह भी हैं कि वर्तमान कवि स्वतंत्र रूप से राष्ट्र के विरोध में अपनी बातें नहीं लिख सकता यदि वह अपनी बात को साक्ष्य के साथ प्रस्तुत ना करें तो सामाजिक, राजनीतिक बिंदु पर शोषण का शिकार हो जाता हैं यह उससे भी अधिक चिंता का विषय हैं। समय के परिदृश्य में कवि की कलम कभी तलवार का कार्य करती थी तो आज वही कलम चलने से पहले सोचती हैं आखिर क्यों? इसका कारण यह भी हैं कि अभिव्यक्ति और कलम के बीच एक रेखा खींच गई हैं ।वर्तमान समय में लोग अभिव्यक्ति के नाम पर भड़काऊ भाषण, हेड स्पीच मौलिक शब्दों का चयन कर लयात्मक ध्वनि में बयानबाजी इत्यादि कविता और मीडिया के बीच रेखा खींच देती हैं जिससे दोनों का ही वर्तमान समय में हनन एवं लोगों के बीच उपहास का पात्र बन रहा हैं । उदाहरण के तौर पर समाचार पत्रों की बात करें तो यह भारत में सबसे कम पढ़ा जाने वाला लागत मूल्य से कम दाम में बिकने वाला एकमात्र व्यवसाय एवं ज्ञान की ज्योति हैं । यही समाचार पत्र आजादी के समय हुंकार, जोश, ताजगी एवं संदेश देने का माध्यम हुआ करता था जहाॅ॑ अज्ञेय जैसें कवि कारागार में रहकर भी अपनी बात जनता तक पहुंचाने में सफल होते हैं ऐसे बहुत से कवि हिंदी साहित्य में प्रसिद्ध हैं जो अपने स्वर से नेता की कुर्सी तक पहुंचाने में सफल रहे हैं– बाबा नागार्जुन तो लिखते हैं–
“इंदु जी !इंदु जी !क्या हुआ आपको
सत्ता के नशे में भूल गई बाप को ।।"
किंतु आज स्वतंत्र भारत में अपनी बात को समझाने में सत्य को सत्य के रूप में प्रदर्शित करने में कवि लाचार एवं बेबस महसूस करता हैं और वह अपने जीवन को एक स्वतंत्र रूप में ना रख कर के सीमित संसाधनों में बांधने की कोशिश करता हैं । जैसे डॉ जैन जी लिखते हैं–
“अपनी रक्षा आप ही, मन में दृढ़ विश्वास
करें प्रकृति से मित्रता, संयम ही सब रास ।।"
स्पष्ट हैं कविता का गिरता हुआ स्तर हिंदी साहित्य के लिए चिंता का विषय हैं गौरतलब हैं आपातकाल में नायक का काम करने वाली कविता आज संक्रमण के दौर से गुजर रही हैं जिसमें आम जनमानस से लेकर साहित्य के विद्वान तक की कविताएं शामिल हैं कहना गलत नहीं होगा। हाल ही में बनारस विश्वविद्यालय के एक शोध छात्र ने हिंदी साहित्य के विद्वान आलोचक कहें जाने वाले महान आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी को हिंदी साहित्य में उन्हें जातिगत एवं साहित्यिक इतिहास के संग्रहालय में डाल देने की बात तक कह डाली ।समाज में जातिगत समीकरण तो पहले से ही विद्यमान हैं किन्तु विद्वत् मंच पर इस तरह के प्रश्न को जन्म देना कहा तक न्याय संगत हैं । अधिक जानकारी एकत्रित करने पर ज्ञात हुआ कुछ समय पहले ही इन महोदय को कविताओं पर पुरस्कार प्राप्त हुआ हैं। सम्मानित होना निश्चय ही गौरव की बात हैं किन्तु प्रश्न यह हैं कि क्या वर्तमान कवि की उपलब्धि पुरस्कारों तक सिमट कर रह गई हैं और यदि नहीं तो ज्ञान और कल्पना का समावेश कहां हैं ? आज के कवियों में वह कल्पनाएं जो निराला जी की कविताएं जैसें जो राम की शक्ति पूजा जैसें महाकाव्य लिखती हैं, माखनलाल चतुर्वेदी की वीर रस की कविताएं ,महादेवी वर्मा की वह छायावादी विचारधारा की महिलाओं के उत्थान के लिए जागृत कविताएं इत्यादि कहां गई ? जो हृदयस्पर्शी भावों को अंदर तक हिलोर देने वाली कवि की कल्पनाएं ! वर्तमान संस्करण में कवि की कविता संक्रमित क्यों हो रही हैं इसका जिम्मेदार कौन हैं क्या कविता अब कल्पना न होकर मात्र भावनाओं की प्रतिमूर्ति बनकर रह गई हैं इस तरह अनेकों प्रश्न हैं किंतु इस पर विचार करना चाहिए । अग्रिम पंक्ति में बैठने वाला कवि कभी, आज सभा की अंतिम पंक्ति में बैठने को विवश हैं इसका जिम्मेदार कौन हैं? किसी ने कहा था– ‘जहाॅ॑ न पहुंचे रवि, वहाॅ॑ पहुंचे कवि' फिर आज इस पंक्ति की प्रासंगिकता क्यों धूमिल होती नजर आ रही हैं । ईश्वर को ना मानने वाले तो यहां तक मानते हैं कि रामायण और गीता भी एक कवि की कल्पना मात्र हैं फिर क्यों अब वाल्मीक ,योग वशिष्ठ जैसे महाज्ञानी कवि की कल्पना अब क्यों नहीं दिखाई पड़ती इस तरह के कई सवाल मन में आते हैं किंतु यदि हम साहित्य की दृष्टि पर नजर डालें तो बहुत सारे ऐसे कवि हैं जिन्होंने हिंदी साहित्य को अमरत्व की ओर से शिखर तक पहुंचाया हैं किंतु वर्तमान समय में कवि की कल्पना विलुप्त होती दिखाई दे रही हैं उस पर विद्वानों की नजर होते हुए भी नयन चक्षु बंद किए हैं आखिर क्यों? शायद पाठकों का कम होना, तथाकथित अल्प ज्ञानियों की बढ़ती लोकप्रियता, पुरस्कारों की बढ़ती भूख, सोशल मीडिया का बढ़ता प्रभाव इत्यादि प्रमुख कारण हो सकते हैं । किंतु कवि की कल्पना स्वतंत्र होती हैं इसलिए उसे स्तंभ के रूप में स्थापित कर पाना नामुमकिन हैं हालाॅ॑कि इससे इतर वर्तमान समय में आधार रहित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं विचरण कर रहे हैं जो कवि की कविता की दुर्दशा की एक अभिव्यक्ति हैं । आवश्यकता हैं कि वर्तमान समय में कवि अपनी कविता में विचरण करने से ज्यादा अपनी कल्पनाओं में विचरण करें । हिंदी साहित्य को इस विज्ञान के युग में एक नई दिशा प्रदान करें । तुलसीदास जी की रामचरितमानस में एक पंक्ति हैं–
‘जो जस करय सो तस फल चाखा' इसका तात्पर्य बस इतना सा ही हैं जो जैंसा जिसके साथ व्यवहार करेगा वैंसा ही फल पायेगा । बस यहीं बात वर्तमान कवियों को सोचने की जरूरत हैं हिंदी साहित्य के परिप्रेक्ष्य में , उसकी गरिमा को बनाए रखने में । गौरतलब हैं इस विज्ञान के युग में हिंदी एक सीमित दायरे में सिमट कर रह गई हैं जरूरत हैं उसे एक नई दिशा प्रदान करना अतः हिंदी साहित्य के सभी शुभचिंतक इस विषय पर विचार – विमर्श करें ।।
*रेशमा त्रिपाठी,प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश
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