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प्रकृति पर हाइकु-गंगा द्वारा आयोजित हुई ऑनलाइन हाइगा कार्यशाला



निसर्ग के अनन्तिम सौंदर्य लोक से रंगध्वनियां चुनकर उन्हें अनुभूति की डोरी में पिरोना, रच देना दूजा आसमान, मर्मरी आवाज़ों से शिल्प गढ़ना एक हाइगाकार ही कर सकता है। जैसे कोई ताज़, कोई कोणार्क, ट्यूलिप गार्डन तो कोई कन्याकुमारी की साँझ का रूप धर ले। अणु-अणु में भासित रंग और आभा से शब्द तैयार करने की कला है "हाइगा"। रूप का "अक्षय पात्र" कभी रिक्त नहीं होता।क्षण-क्षण रूप बदलने वाली प्रकृति संस्कृत युग से लेकर छायावाद तक अपनी विलक्षणता के साथ विद्यमान रही। 21वीं सदी भी प्रकृति और मनुष्य के सापेक्ष संबंधों की प्रीति कथा कहती है। एक जापानी कहावत है कि जब हम किसी को फूल देते हैं तो थोड़ी सी ख़ुशबू देने वाले के हाथों में भी लगी होती है। महक का यह विनिमय दिनांक 10/5/2020 को "हाइकु-गंगा" के पटल पर साकार हुआ। समूह की एडमिन एवं हाइकु काव्य की अस्मिता को पूरी शिद्दत से उकेरनेवाली प्रथितयश डाॅ. मिथिलेश दीक्षित जी ने इस आयोजन की रूपरेखा में रंग भरा।
प्रकृति काव्य की संज्ञा से भूषित हाइकु काव्य का जापान से भारत तक की फिज़ाओं में रस घोलना एक अविस्मरणीय इतिवृत्त है। इस अतीन्द्रिय भाव भूमि पर मिट्टी की सुगंध हे।गुलाबों का इत्र है। चिलचिलाती धूप में अभ्रक सी चमकती धरती है। हक़ीक़त और ख़्वाब के बीच भयावह दूरी है।पर्यावरण ध्वंस पर केन्द्रित हाइगा चिन्तन का शिखर छू गये हैं। प्रथमतः विविध भाव दशाओं का सुरम्य संचयन करती हुई डाॅ. मधु चतुर्वेदी हाथी के रूपक से संवेदित हाइगा के माध्यम से "मदर्स डे" को बेहद आत्मीयता से पटल पर अंकित कर गयीं- "आत्म विश्वास/ममता का प्रकाश/पथ प्रशस्त।", तो दूसरी ओर उनके शब्दचित्र ने जलवा बिखेरा----सांझ की झिड़की से आवारा सूरज का झील में डूब जाना, ऊफ क्या नज़ाकत है। दुष्यन्त कुमार कहते हैं- तूने ये हरसिंगार हिलाकर बुरा किया तो मीनू खरे दिल की धड़कनें तेज करनेवाला हाइगा लेकर आती हैं- "तुम हो जैसे/पारदर्शी जल में/हरसिंगार। जलकणों से उभरी प्रतिमा आहिस्ता-आहिस्ता नेत्रों का उपहार बन गई। उनकी सौंदर्य चेतना मात्र भावुकता से पुरस्कृत नहीं कहीं-कहीं उससे दर्द भी टपकता हुआ देखा है- "जाते देखी जो /पेड़ों की शवयात्रा/पक्षी फफके। यहाँ फफके शब्द की ध्वनि अविकल है। वक़्त की नब्ज़ पर हाथ रखकर रवीन्द्र प्रभात मर्ज़ बड़ी आसानी से पहचान लेते हैं।कोविड19 की व्यथा कथा एवं संदर्भ का स्याह रंग दृष्टव्य है- "प्रकृति रोये/अतिक्रमण से ही /कोरोना होये।चटखती आस्थाएँ तकलीफ़देह हैं।युगबोध संपन्न कृतिकार ऐसे ही होते हैं। एक रोचक प्रयोग से नवाज़ते हैं रवीन्द्रजी- "चली पछुआ/बूँदा बाँदी के साथ/ले के बारात।" डॉ. लवलेश दत्त की तीव्र संवेदना की परिधि में वन उपवन, तारे, खेत, नहर, छाया, झरने प्रकृति की हर शै समा गई है। प्रकृति के मानवीकरण में शिल्प लाघव प्रभावित करता है---"प्रभात बेला/टहलने निकला/सूर्य अकेला। अज्ञेय ने कहा देवता अब पुराने प्रतीकों के कर गये हैं कूच। निवेदिता श्री के नवताकामी मन ने नया प्रतीक ढूँढ लिया- "चन्द्र रंगीला/पूर्णिमा पर दिखा/स्वर्ण पतीला।" क्या ख़ूब। कोयल की कूक का थम जाना पर्यावरण नाश की गवाही है। बदली सदी के कई चेहरे हैं। कुछ विद्रूप भी हैं। मेघदूत, गंगा में दीप, सैर पर निकला चाँद तो है ही। फटी धरती और लाॅकडाउन की चर्चा भी है।
प्रत्येक रचनाकार के सृजन का अपना अंदाज़ होता है। पुष्पा सिंघी का विषय वैविध्य उनके चिन्तन के दायरे का क्षेत्रफल बताता है। जीवन दर्शन, प्रकृति ध्वंस, सौंदर्यासक्ति एवं आशावाद, सब कुछ है। उनके पास देने को बहुत कुछ है।रूप से कटाक्ष की ओर क्रमण करती हुई पुष्पा जी कहती हैं- "जंगल कटे/हिमखंड पिघले/चाँद पे चले।" डॉ. सुरंगमा यादव के पटल पर आते ही लगता है कुछ तो नया होगा। नवता सदैव रूचिकर होती है। हाथ कंगन को आरसी क्या- "विज्ञप्ति ले के/आया है पतझड़/नयी भर्ती की।" वे अक्सर प्रकृति की तुला पर जिन्दगी के रंगों को तौलती है। समंदर की तनहाई, चाँद का झील में नहाना, परिन्दों की वापसी, कांक्रीट वन में पक्षियों की वेदना से द्रवित सुरंगमा जी बहुआयामी फलक पर विचरण करती हैं। हर दृश्य को अपने रागानुराग से बाँधती सरस दरबारी पटल पर संवेदना का गुलदस्ता रख जाती हैं।उनकी उर्वर कल्पना की बानगी पेश है- "लहरें क्रुद्ध/किनारे योगी सम/मची है रार।" इसमें रार शब्द अमूल्य है।हाइगा में एक एक शब्द अपने औपन्यासिक कलेवर के साथ होता है।
गुहार लगा रही है पृथ्वी- "मेरी साँसें थम रही हैं। मुझे बचाओ।"अंजू निगमजी " ने ये गुहार सुन ली है।इस हाइगा में उनके अन्तःकरण का उद्वेलन द्रष्टव्य है- "उगले धुँआ/प्रदूषित है हवा/मौत का कुँआ।" सौंदर्य बचेगा अगर हम बचाएंगे। उपभोक्तावाद की कालिख सूरज की रोशनी को ढँक रही है। वे रचनाधर्म का पालन करती हैं- "कटे जंगल/बढ़े जल प्लावन/नहीं मंगल।" धूप की तरह कोहरे की गिरह खोलना हो या चाँद के कान पकड़ना हो ये लासानी कोशिश सुभाषिणी शर्मा ही कर सकती हैं। रम्य कल्पनाओं की मलिका। बृहस्पति के सोलह और पृथ्वी का चाँद इकलौता है। उनका चाँद लहरों में अमृत घोलता है। मातृ दिवस पर हृदयस्पर्शी व्यंजनाओं से उपकृत कर गयीं हैं वे- "कोई भी बाधा/नहीं डिगा सकती/माँ का इरादा।" अनूठे बिंब का नाद प्रस्तुत करने में माहिर हैं सत्या सिंह। उनकी निगाहों की जद में गुलमोहर, अमलतास, ओस, धुंध, हवाएँ, बर्फ ही नहीं कुल मिलाकर कल्पनाओं का इन्द्रधनुष भी है। एक ताज़ा बिंब सभी की नज़र का तारा बन सकता है- "केंचुल मारे/साँप सी लग रही/भीगी सड़कें।" जीवन के मूल स्त्रोत की रक्षा होगी तो रंगों के उत्सव होंगे, हाइगा बनेंगे। प्रशस्ति वाचन होगा- "रूप अनंत/सौंदर्य शरमाए/वाह वसंत।" संसाधनों के अनियंत्रित दोहन की ओर डाॅ. आनन्द प्रकाश शाक्य, रचनाकार बिरादरी का ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं- "पृथ्वी पुकारे/तपे अंग हमारे/हठी संतानें।" वेदों में माँ को पृथ्वी कहा गया है।सृजन क्षमता दोनों का रसार्त परिचय है। इसी कथ्य को हाइगा में प्राणवान करती हुई डॉ. कल्पना दुबे का शाहकार है- "मेघा बरसे/धरती के अंक से/अंकुर फूटे।" उनके हाइगा से मेघ मल्हार सुनाई देता है और वे क्रमशः हवा का स्नेहिल स्पर्श,निर्झर की झर झर,कमलकली का पराग दान, और अखंड हरीतिमा सौंप जाती हैं। हाइगा रचती है हरीतिमा। कहीं पढ़ा था प्रकृति प्रेमी वर्ड्रसवर्थ की समाधि पर हरी घास की चादर बिछी है।हरा रंग शाश्वत चैतन्य का प्रतीक है।
अनोखी कृति/वर्षा की हर बूँद/है गणपति।" कहकर इन्दिरा किसलय पृथ्वी के अस्तित्व की निर्णायक बूँद को शुभंकर का दर्जा दे जाती हैं। उत्कट जीवन दर्शन का समाहार करता हाइगा बहुत कुछ कहता है- ''कितनी सगी/पंखुड़ी पर ओस/जैसे जिन्दगी।" प्रकृति के प्रति अद्भुत सम्मोहन को महीन स्वरों से निवेदित करती हैं। कार्यक्रम संयोजक डाॅ. शैलेष गुप्त 'वीर' जोश में होश खोती पीढ़ी पर शर संधान कर रहे हैं। धरा के आभूषण छीन रहे हैं हम। वन हैं तो हम हैं। एक हाइगाकार को अर्जुन की भाँति होना चाहिए। वीर जी यही तो कहते हैं। भविष्य में जल की ख़ातिर विश्वयुद्ध के पूर्वाभास का संकेत मुखर है- "जल-जीवन/व्यर्थ हैं जल बिन/'शुक्र'-'मंगल'।" धरती की सिसकी सभी नहीं सुन पाते। मन को कान बनाना पड़ता है। प्रश्न अनंत हैं पर कुछ हैं जो घायल कर जाते हैं। वर्षा अग्रवाल चिड़िया की च्यूंक से सवाल उठाती हैं- "पूछे गौरैया/क्यूं पाटा है आँगन/मैं कहाँ जाऊँ।" कल्पना की अंगड़ाइयाँ चित्रित करती हुई सुकेश शर्मा एवं डॉ. सुषमा सिंह का काव्य वैभव भी आकर्षित करता है। डाॅ. मिथिलेश दीक्षित स्वयं एक समंदर हैं। प्रतिभागी रचनाकार जैसे लहरें। जो चाँद छूने को आतुर हैं। वे निर्देशित तो करती हैं पर अपने सृजन ऐश्वर्य से अचंभित कर जाती हैं।चिड़ियों की टी वी टी टुट टुट से हाइगा वे ही रच सकती हैं। उनकी अन्तर्दृष्टि है या कैमरा। साक्षी है एक हाइगा- ''धूप बीनती/मृदुल फूल पर /बिखरे मोती।अनोखा बिंब विधान उनकी नवोन्मेषी शैली का परिचय देता है- "हुये सन्यस्त/वृक्षों ने पहने हैं/गैरिक वस्त्र।"
कहने की ज़रूरत नहीं कि उर्ध्वकथित आयोजन "मोहार्त संवेदनों का कोलाज" है, जिसमें नेत्र लिपि की कमनीयता, हीरकनी से भावों की कतरनें और विद्युत की कौंध ने तिलिस्म रचा है। इस ऑनलाइन हाइगा आयोजन का हार्दिक श्रेय विभूतिद्वय डाॅ. मिथिलेश दीक्षित जी एवं डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' के खाते में दर्ज़ है। उनके साथ समस्त हाइगाकारों का हृदय से अभिनंदन, जिन्होंने इस अपूर्व कार्यक्रम को मूर्त रूप प्रदान किया।


 


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