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लोकल से 'वोकल' की ओर



*अलका 'सोनी'

पिछले 3 महीने से संपूर्ण विश्व के तक़लीफ़ का कारण शायद पहली बार एक ही है; "कोरोना "। जिसने संपूर्ण विश्व को, समाज को अनजाने में एक सूत्र से बांध दिया है।  इस बीमारी से होने वाली जान- माल की क्षति तथा संक्रमण को थोड़ी देर के लिए किनारे रखकर अगर हम सोचे तो पाएंगे कि कई तरह के सकारात्मक बदलाव भी आए हैं। लोगों के सोचने की शक्ति, काम करने की शक्ति और उनकी आत्म- निर्भरता बढ़ी है ।यह शायद इसलिए कि हर बुराई के पीछे कुछ अच्छाई छिपी हुई होती है ।कोरोना के तीसरे पड़ाव यानी सामाजिक संक्रमण में लगाए गए,  लॉक डाउन का भी चौथा संस्करण 18 मई से शुरू होने वाला है। लॉक डाउन 1.0, लॉक डाउन 2.0, लॉक डाउन 3.0, के बाद 4.0 का अलार्म भी बज चुका है। शुरुआत की तीनों लोक डाउन तो बिल्कुल बंद ही रहे। उनका सख्ती से पालन किया गया । इस दौरान जनता को अनेक तरह की असुविधाओं का सामना करना पड़ा। 

जिनमें चिकित्सा संबंधी असुविधाएं तो सर्वप्रथम हैं। इस घर बंदी के दौरान कोई आपातकालीन आवश्यकता पड़ने पर चिकित्सक मिलते ही नहीं थे। जिसका एक बड़ा कारण हमारे देश में डॉक्टर्स का अभाव है । यहां चिकित्सकों की संख्या पहले से ही कम थी और जो चिकित्सक थे उन्हें कोरोना पीड़ितों के इलाज में लगा दिया गया है। जिसके कारण जनता को अनेक तरह की और असुविधाओं का सामना करना पड़ा। इसके बाद लोगों की बुनियादी जरूरतें जैसे भोजन -वस्त्र आदि का स्थान आता है। घर बंदी की घोषणा होते ही लोगों ने महीने भर की राशन सामग्री आनन-फानन में जुटा ली। लेकिन यह सामग्री कितने दिनों तक चलती ? 

हर बार बढ़ते लॉक डाउन ने लोगों के अंदर खाद्य सामग्री के प्रति असुरक्षा की भावना भर दी। उन्हें लगने लगा कि यदि राशन खत्म हुआ तो वे क्या करेंगे ? इसी बीच बार-बार प्रधानमंत्री जी का आश्वासन मिलता रहा कि वे किसी तरह की कमी नहीं होने देंगे। असुरक्षा की इस भावना के फल स्वरूप कालाबाजारी भी हुई। कुछ लोग पकड़े भी गए। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि पिछले दो ढाई महीने से हमारी इन जरूरतों को कौन पूरा कर रहा है ? जब बाहर से यातायात ना के बराबर है तो फिर हमें ये सामान कहां से और कैसे मिल रहे हैं ? सारे बड़े और ब्रांडेड उत्पाद बंद है तो फिर हमें चीजें कहां से मिल रही है?

इस मुश्किल घड़ी में हमारी अर्थव्यवस्था को संकट मोचन की तरह छोटे और लघु उद्योगों ने संभाल रखा है। जिसे लोकल की संज्ञा दी जाती है ।आज चाय पत्ती, बिस्किट, सैनिटाइजर से लेकर अन्य उत्पादों का बड़ा हिस्सा लघु उद्योगों के माध्यम से ही आ रहा है । इसकी भूमिका शक्तिशाली रूप में उभरी है। मुझे इस बात की खुशी है कि इस लोकल यानी स्थानीय शब्द की बहुत सुंदर तरीके से व्याख्या हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी ने अपने राष्ट्र के नाम संदेश में की है। हमेशा से हाशिए पर रहता आया लघु उद्योग पहली बार इतना सम्मान पाया है । 

यह एक शुभ संकेत है जो देश को आत्मनिर्भरता की ओर ले जा सकता है । इसे रोजगार के क्षेत्र में आशा की नई किरण के तौर पर देखा जा सकता है। अर्थात युवा अब केवल नौकरी पर निर्भर ना रहे। वे चाहे तो स्वयं का कोई उद्यम शुरू कर सकते हैं। अगर सच्चे मन और लगन के साथ कुछ किया जाए ,कोई उद्योग किया जाए तो अवश्य शुभ फलदाई होता है।

इससे नौकरी की आस में बैठे कई बेरोजगारों को रोशनी की एक नई सुबह मिल सकती है। प्रधानमंत्री जी द्वारा घोषित 20 लाख करोड़ रुपए का बंटवारा इन उद्योगों के हित में किस तरह किया जाएगा यह तो हमें धीरे-धीरे ही पता चल पाएगा। किंतु आज का सकारात्मक संकेत जो कि लोकल को "वोकल" बनाने की दिशा में है इस पर विचार करने का सही समय यही है।

अपने लोकल उत्पादन शक्ति का महत्व अगर यह देश समझ पाए तो निश्चय ही आत्मनिर्भरता की ओर हमारे कदम स्वतः ही बढ़ जाएंगे।

 

*अलका 'सोनी',बर्नपुर, पश्चिम बंगाल

 


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