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लॉकडाउन और मजदूर



*प्रीति शर्मा 'असीम'

 

किसी भी आपदा ,महामारी  का सबसे ज्यादा प्रभाव  कमज़ोर और गरीब  वर्ग पर ही होता है। कोरोना जैसी महामारी जिसे  लेकर तो विदेशों से आए अमीर मेहमान थे लेकिन इस महामारी के बाद भारत में लोकडाउन होने से  सबसे ज्यादा असर उन गरीब मजदूरों पर हुआ जो हर रोज मेहनत मजदूरी करके कमाते थे और उसी कमाई से अपनी जिंदगी का गुजर-बसर कर रहे थे। वक्त की सबसे बड़ी मार अगर किसी वर्ग ने झेली है तो वह यही वर्ग है। महामारी से नहीं बल्कि  लोकडाउन के चलते  सुरक्षा के व्यवहार से ।

 

बहुत कुछ खोया इस वर्ग ने मजदूर किसी देश की रीड की हड्डी माने जाते हैं। अर्थव्यवस्था में  उनका योगदान सबसे अधिक होता है  क्योंकि वह अपनी मेहनत देते हैं अपना काम देते हैं। लेकिन बदले में समाज से हीन भावना पाते हैं।जैसे ही भारत में लोगडाउन शुरू हुआ सुरक्षा के मध्य नजर रखते हुए सभी दुकानें फैक्ट्रियां, मिले बंद हो गई और मजदूर जो सड़कों के किनारे पर रेहड़ी- ढाबा चलाते थे वह लोग अपने काम को बंद करके घरों में बैठ गये। और वो लोग जिनके घर भी नहीं थे। वह अपने-अपने घर जाने को मजबूर हो गए एक राज्य से दूसरे राज्य तक जाने के लिए पैदल ही निकल पड़े ।

 काम बंद हुआ दिहाड़ी- दार सड़क पर आ गए।

 

सभी राज्यों ने एक दूसरे की स्टेट में लोगों को पहुंचाने के लिए सरहदों पर ही लोगों को क्वारेंटाइन  कर दिया ।बसें और रेलगाड़ियां ना चलने की वजह से मजदूर दिल्ली ,पंजाब ,हिमाचल से अपने राज्य बिहार ,मध्य प्रदेश ,उत्तर प्रदेश जाने के लिए पैदल ही चल पड़े और इस पैदल यात्रा में कईयों ने 500 से 600 किलोमीटर की दूरी तय कर ली और इस दूरी के बीच जो उनकी हालत हुई उसकी तस्वीरें दिल दहलाने वाली है ।

 

मजदूर अपने परिवारों के साथ पैदल चल रहे है भूखे प्यासे रास्ते में कोई खान पीने का कोई प्रबंध नहीं क्योंकि लोकडाउन के चलते सारी दुकानें ढाबे बंद थे यह लोग भूखे प्यासे अगर कहीं से कोई समाज सेवी संस्था इनको खाना  खाने को दे देती कुछ को मिलता आधे ऐसे ही रह जाते । राज्य सरकारों की सेवाएं भी पूर्णता सब तक नहीं पहुंच पाई। लंबा सफर तय करते हुए जूते चप्पल टूट चुके थे और नंगे पांव बंजर धरती की तरह बंजर हो गए थे। 

 

राहत सामग्री भी बहुत मिली लोगों को खाना पहुंचाया भी गया लेकिन इस भुखमरी और लाचारी तक पूरा नहीं पहुंच पाया। कई किलोमीटर तक  भूखे प्यासे ही निकल जाते  कुछ मजदूरों को राज्य सरकारों ने  उनके राज्य में पहुंचने से पहले ही सुरक्षा के नाम पर क्वारेंटाइन कर लिया और कहां कि  इन्हें इनके राज्य में पहुंचाया जाएगा लेकिन लंबे इंतजार के बाद जब  सरकार के आश्वासन भरपेट खाना भी ना दिला  सके तो खोखले सिद्ध हुए वादों को देख कर कुछ मजदूर ने बगावत कर दी। 

 

बगावत कर के डंडे खाए दो रोटी के बदले में  बेरहमी से पुलिस की मार झेलनी पड़ी रास्ते में अगर कोई मालवाहक वाहन मिल जाता तो लोग अपने घरों तक पहुंचने के लिए उसे 5000 प्रति व्यक्ति देने को अपने राज्य तक पहुंचने के लिए तैयार हो जाते ।जिनके पास पैसा नहीं था वह  पैदल ही चले हुए थे ।दस -दस साल के बच्चे भी सर पर समान उठाये  पैदल चले जा रही थे। इसी  पैदल चलते हुए कुछ मजदूर रेल की पटरी पर ही थक के सो गए और मालगाड़ी उन्हें सदा की नींद सुला गई ।कुछ स्थानों पर भर-भर के मजदूरों के ट्रक जब एक जगह से दूसरी जगह ले जाए गए कुछ दुर्घटनाओं में मारे गए इस दौरान कोरोना की बजाय ज्यादा जानें इनकी लाचारी और बेबसी ने ले ली।

 

कुछ मजदूर परिवार ऐसे भी थे जिन्हें स्वास्थ्य सुविधाएं  ना मिल पाने की वजह से जिन्होंने अपने बच्चों और बुजुर्गों को खोना पड़ा और लाचारी का ऐसा दृश्य कि स्वास्थ्य सुविधाएं ना मिलने के कारण एक महिला  पांच- छः साल का  बीमार बच्चा  स्वास्थ्य सुविधा प्राप्त ना होने की वजह से  मर जाता है  और मृतक बच्चा गोद में उठाए इधर-उधर मदद की गुहार  लगाती है लेकिन लोकडाउन के चलते उसे सहायता ना मिल पाई।

 

महिलाओं को  सड़क पर ही बच्चे को जन्म देने और मीलों पैदल चलने पर विवश होना पड़ा यह ऐसे दृश्य हैं  जो किसी भी इंसान को विचलित कर सकते है ।  चौथा लोकडाउन स्टार्ट हो चुका है आधे मजदूर सड़कों पर है जबकि आधों  की काम पर वापसी हो गई है। जिंदगी को धीरे-धीरे पटरी पर लाने की कोशिश की जा रही है लेकिन इन दो महीनों में जिसने जो खो दिया है उसकी भरपाई शायद ही हो पाएगी। 

 

*प्रीति शर्मा 'असीम',नालागढ़ हिमाचल प्रदेश

 


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