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जीवनानुभवों की सहज अभिव्यक्ति-आदमी उत्पाद की पैकिंग हुआ



आयु का अस्सीवाँ जन्मदिन मनाकर, निरन्तर साहित्य साधना में रत वरिष्ठ रचनाकार डॉ. मनोहर अभय की गीतात्मक रचनाओं का संकलन है 'आदमी उत्पाद की पैकिंग हुआ'|  इस में डॉ. अभय के 111 समकालीन प्रतिनिधि गीत हैं । विपुल साहित्यिक सम्पदा के स्वामी डॉ अभय के गीतों को पढ़ते हुए यह स्पष्ट अनुभव होता है कि ये गीत जीवनानुभवों की सहज अभिव्यक्ति के शब्दांकन हैं। अध्यापन और प्रशासन के विभिन्न पदों पर कार्यशील रहे अभय जी मानवी संवेदना के वैविध्यपूर्ण बिन्दुओं  को रचनाओं का कथ्य बनाकर व्यक्त करते रहे हैं। इन गीतों से गुजरते हुए जो बात प्रथम दृष्टया अनुभव होती है वह उनकी कविता में विचार को मुख्य रूप से प्रस्तुत करने की रही है जिसमें कहीं-कहीं शिल्प को गौण मानकर बात कहने को वरीयता दी गयी है। 

डॉ अभय के गीतों में उनके साहित्यिक सरोकार संगुम्फित हैं जहाँ मानवीय रिश्तों , आमजन की संवेदना , महानगरीय जीवन , नैतिक मूल्यों के क्षरण ,  देशभक्ति , राजनीतिक अवमूल्यन,और युगीन यथार्थ  आदि के साथ-साथ मौसम तथा श्रृंगार पूर्ण रचनाओं में उनकी मानव-मूल्यों के लिए प्रतिबद्धता को सहजता से उकेरा गया है। यों तो प्रत्येक गीत-रचना स्वतन्त्र इकाई होती है फिर भी केंद्रीय तत्व के रूप में रचनाकार के निजी मंतव्य और दुनिया को देखने, समझने और व्याख्यायित करने का ढंग हर रचना में प्रकट होता है। डॉ अभय के गीत भी अपनी सम्प्रेषणीयता बनाये रखकर संग्रह में आदि से अंत तक सरोकारों से जुड़े हैं। 

मानवी रिश्ते और पारिवारिक संबंधों की भावुक संवेदना को रचनाओं में व्यक्त करने का डॉ अभय का अपना ही ढंग है। आइये उनकी रचनाओं पर नज़र डालते हैं।माँ को याद करते हुएअभय का कवि कहता है:'बँटती रहीं तुम रोटियों सी/ करते कलेजे टूँक/ अपने लिए सोचा नहीं/ क्या प्यास कैसी भूख/ गलती-पिघलती घुल गईं/ जैसे कि मिठुआ  पान।' (आपके वरदान -पृ 16)| मधुमास को समर्पित गीत की पंक्ति है  :'तितलियों से भर गईं/क्यारियाँ फुलवारियाँ/ कलियाँ सियानी मारती/रस गंध की पिचकारियाँ/ ढपली बजाते मधुप चंचल/फागुनी उल्लास के।' (दिन आ रहे मधुमास के-पृ 19)

विकास में आमजन की भागीदारी और निर्माण में सहभागिता को लक्ष्य कर कवि कहता है: 

'अक्षरों को जोड़ने में/ हिस्सा हमारा भी रहा/ इस अधूरी पटकथा में/ किस्सा हमारा भी रहा/ मानिए मत मानिए/ हम कह रहे/ आदमी के बीच में/ घटते रहेंगे फासले।' या ये कहना कवि के साहस का द्योतक है :'संहिताएँ वांचते/ थक गई हैं पीढ़ियाँ/ ऊँची बहुत हैं न्याय पथ की सीढ़ियाँ/ सौंप दीं/ जब फाइलें हैं मुंसिफ़ों को/ उम्रभर  लटके रहेंगे मामले।' (रुकते नहीं वे काफिले -पृ 21 व 22)      

अराजक मानसिकता के द्वारा परिवर्तन पारम्परिक सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा नहीं कर पा रहा है। अतः अभय जी का कवि मन बेचैन है( 'नव ताल लय रस छंद /सब हो गए स्वच्छंद /शोर के कैफे खुले/नाचती नृत्यांगना निर्द्वंद /नूपुर कहाँ बाँधूँ।' / 'सँकरी गली के मोड़ पर /मॉल चौमंजिले बने/मुँह आ लगे हैं /चिप्स, बैफर, कुरकुरे/रस मलाई सी मिठाई /मैं कहाँ माँगू ?' (साँतिये किधर काढूं -पृ 23)

सामान्य आदमी के जीवन की सच्चाई ,उसकी अनुभूतियाँ , अस्तित्व रक्षा के लिए संघर्ष , समयगत परिस्थितियों के दबाव तथा राजनैतिक शासन- व्यवस्था में स्वयं को बचाये रखने की जद्दो-जहद में जकड़ा हुआ आदमी डॉ अभय की रचनाओं का ऐसा कथ्य है जो व्यक्त होने के लिए किसी संपन्न शिल्प की भी परवाह नहीं करता और अपने अनगढ़ रूप में भी कसमसाकर प्रस्तुत हो रहा है।  

आइये संग्रह की अनेक रचनाओं में व्यक्त शब्दांकन पर एक दृष्टि डालते हैं : 'बड़ी हवेली देखी तुमने/देखे राजनिवास/आओ राजन तुम्हें दिखाएँ/ वनवासी का वास। ....विरसा मुंडा के बालक ये/नंगे उघरे जीते/चना चबैना सत्तू खारी/हड़िया खुलकर पीते/आँखों के आँगन में बैठा /चाहत का उजियास। '

(वनवासी का वास-पृ 29) ....'बिटिया जाती/जंगल झाड़े/ हँसें झाड़-झंखाड़ /गस्त लगाता बड़ा सिपहिया /देखे आँखें फाड़ /इज्जत धरी उतार /बबुआ ! कैसे इज्जतदार '  (हम गाड़िया लुहार -पृ 42)

'यज्ञ पूजन में घुसे / नरमेध कितने/ हो रहे हैं आदमी / हर रोज़ ठिगने / रुधिर चखने में लगीं\ शीलवन्ती वार्ताएँ। ' (पीड़ितों की व्यथाएँ -पृ 139 )| आम आदमी की ओर से भद्रलोक के लिए एक व्यंग्यपूर्ण प्रतिरोध को व्यक्त करते गीत  की पंक्तियाँ :'पालकी हम /आपकी ढ़ोते रहे / हाँक कर दिखलाइये / अब हमारी बग्घियाँ’।...यंत्रणाओं के महल हम तोड़ आये /छोड़ आये /नाज़-नखरे वक्त के हम /छोड़ आये /चाय पीकर चल दिए हम /आप धोएँ प्यालियाँ। ' (पालकी ढ़ोते  रहे -पृ 214 )

युगीन यथार्थ  डॉ अभय जी की रचनाओं में इस प्रकार संगुम्फित है कि हर रचना उनकी प्रतिबद्ध चेतना की अभिव्यक्ति से ओत-प्रोत है। उनकी रचना 'क्या हुआ मेरा शहर' की पंक्तियाँ देखिये :

'हर बसर बेचैन है /हर प्रहर / क्या हुआ मेरा शहर।  /गंदगी के ढेर पर /कैसी सजी रसोइयाँ /कोठियों के पाँव पड़तीं /सिमटी सदी सी झुग्गियाँ/ नाजुक सबेरा पी रहा \तीखा जहर। '  ( क्या हुआ मेरा शहर-पृ 69 )|'आश्वासनों के मन्त्र' शीर्षक गीत की पंक्तियाँ देखने योग्य हैं  :'लिख दिए दीवार पर /आश्वासनों के मन्त्र /संभावना की पंक्तियाँ लिख दीजिए।...वंचकों के बीच में /वंचित बसे /कील चुभती जूतियों में /पाँव हैं ठिगने फँसे /खुरदरे पैताव /ढीले कीजिए। ' (आश्वासनों के मन्त्र-पृ -121) 

अन्य अनेक उद्धरण दिए जा सकते हैं जो डॉ. अभय की प्रतिबद्ध रचनाशीलता को सशक्त सार्थकता से व्यक्त करते हैं। संग्रह की कुछ रचनाएँ पाठक को उद्वेलित करती हुई सोचने और कुछ करने के लिए प्रेरित करती हैं। संग्रह को पढ़ते हुए मुझे जिन रचनाओं ने सबसे अधिक प्रभावित किया उनकी सूची भी बहुत लम्बी है। फिर भी जो मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं उनमें , ' वनवासी का वास' , ' खल  रहीं खामोशियाँ', ' मत कहो दिन आएँगे आपात के’ 'बातें इंकलाबी', 'हम गाड़िया लुहार', 'घर राजगीरों के', 'आदिम पहचान', ' हरी चूड़ियों की आस', 'मोची रामरतना', 'कहाँ आ गए', 'मौज कर रहा बगुला', 'तमाशे और भी होंगे', 'चिट्ठी आएगी', 'सपना गिरा', 'बलिदान हो जाते', 'छुट्टियाँ :एक ', 'वक्त की सुइयाँ', 'फीके कथानक', 'रामदासी', 'पैरों खड़ी  हो जाएँगी', ' कैसे गाऊँ मेघ मल्हार', 'आदमी उत्पाद की पैकिंग हुआ', 'आप इकले तो नहीं', 'माछीमार', 'हम साहब पॉलिश वाले',  और 'साधो! साँची बात कहो' ऐसी रचनाएँ हैं जो स्वयं आकर्षित करती हैं। 

अंत में डॉ मनोहर अभय के गीत 'लग रहे अभियोग'  से समापन करते हुए मैं स्वयं उत्प्रेरित अनुभव कर रहा हूँ :' चुभ रहे हैं गीत\मानो बढ़ गए नाखून\दहकता सा कथ्य \जैसे गर्मियों में जून \और लिखना छोड़ दूँ \कह रहे हैं लोग। 

 

सच्चाइयों से धूल झाडी 

बेबसी ओढ़ी नहीं  

भोगी हुई इस जिंदगी के 

कह दिए सब भोग।  

 

नाजुकी 

मैं अप्सराओं की लिखूँ 

पगड़ी उतारूँ 

सामने उनके झुकूँ 

चाशनी सी चाटने का 

लग गया है रोग। 

 

वंशी नहीं 

सीटी बजाना जानता 

रात दिन जागता 

औ' जगाना जानता   

वे सिखाना चाहते हैं 

नींद तन्द्रा योग। 

 

मैं रिझाऊँ आपको 

मुमकिन नहीं 

आँखें उठाकर देखना 

मुश्किल नहीं 

लिखना बहुत है जानता हूँ 

उत्पीड़ितों पर लग रहे 

रात दिन अभियोग। 

अपनी समग्रता में डॉ अभय का यह संग्रह ''आदमी उत्पाद की पैकिंग हुआ '' उनके वृहद्  जीवनानुभवों की सहज अभिव्यक्ति का शब्दांकन  है। एक पठनीय, संग्रहणीय, उद्धरणीय तथा विवेचनीय संकलन है जो अपनी समकालीनता का सशक्त दस्तावेज है। 

 

संग्रह का नाम  : 'आदमी उत्पाद की पैकिंग हुआ' (समकालीन गीत )

रचनाकार : डॉ. मनोहर अभय

संपादक : राघवेंद्र तिवारी 

प्रकाशक : बोधि प्रकाशन ,जयपुर  

मूल्य : रु.  250/- , पृष्ठ : 228


समीक्षक- जगदीश पंकज .साहिबाबाद ग़ाज़ियाबाद 


 


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