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बेटी विषय पर हाइकु-गंगा द्वारा आयोजित हुआ हाइगा सम्मेलन



गंगा की लहरों पर तिरते हुये दीप रचते हैं आलोकपर्व। झिलमिल रोशनी में स्नात जलधारा सौंदर्य में शिवता के बिंब समायोजित करती है। "हाइकु गंगा" द्वारा आयोजित "ऑनलाइन हाइगा सम्मेलन" ने दीपदान की याद दिला दी। हाइकुकार दीपक से प्रज्वलित हुए पटल पर रोशनी के प्रवक्ता बनकर। शास्त्रज्ञों ने ईश्वर के लिये कहा प्रथमतः- "त्वं स्त्री।" इसी पीठिका पर "बेटी" को समर्पित यह संरचना तीर्थोदक सी लगी। उत्तर वैदिक युग से आरंभ कन्या-गाथा, समय के प्रवाह में अनचाहे दर्दीले क्षेपकों से जुड़ती रही।कुछ चुनिन्दा दृश्यों को छोड़कर यह मानवीय धरातल को छू न सकी। प्रस्तुत हाइगा-श्रृंखला में कुछ ज्वलन्त प्रश्न, कुछ सपने, हौसले, हक़ीक़त और नैसर्गिक रूपधारा ने रचनात्मकता का उच्च स्तर संपादित किया है।

सुकुमार संवेदनों से लिपटी युगीन यातनाओं को मसि कागद के हवाले करने वाली डाॅ. सुरंगमा यादव जी सक्षम हाइकुकार हैं। बेटी युग की भाषा को, तेज़ाब फेंकने जैसी क्रूर घटनाओं ने कलंकित करने का प्रयास किया है। "कैसी ये सोच/बेटी को प्राणदण्ड/कोख में मिला", वे कन्याभ्रूण हत्या को केन्द्र में रखकर, हाइगा के बहाने सोच के अणु जनमानस में छोड़ गयी हैं। बेटी हमारा गौरव है। मंज़िल की तरफ़, पहले क़दम का आगाज़ है यह स्वीकृति। कोहिनूर सी अनमोल बेटियों के लिये आशा का सबेरा सौगात में देने वाले डाॅ. रवीन्द्र प्रभात जी का हाइगा स्तुत्य है- "अँधेरों में है/उम्मीद की सुबह/बेटी हमारी।" नवयुग के नवाचार सर्वत्र ध्वनित हो रहे हैं।असूर्यपश्या ने पिता को मुखाग्नि भी दी है। इसी के समान्तर पुकार उठ रही है- "त्राहि माम्" चेतना को उत्कट तल पर आन्दोलित करती हुई मीनू खरे जी ने अभिनव व्यंजना दी है- "पत्थर बीन/सीढ़ी बनाती बेटी/चाँद छूने को।" संवेदनशील होती हैं बेटियाँ। वे पिता की दौलत हैं। उपहार हैं। इसी नींव पर महल बनता है प्रकाम्य समाज का।


डॉ. लवलेश दत्त जी ने यही छवि अंकित की है- "तुमसे ही तो/है त्याग की कहानी/बिटिया रानी।" आँचल में दूध और आँखों में पानी वाला फलसफा अब स्वीकार्य नहीं। "हूँ तेरा अंश/मुझबिन माँ नहीं/बढ़ेगा वंश।'' आसमां छूने को पंख मिलते नहीं हासिल किये जाते हैं। खिड़की से आसमां निहारने की विवशता के साथ जीना छोड़ चुकी है बेटी। सत्या सिंह जी यही तो कहती हैं। प्रदर्शनप्रियता एवं सियासत की अंदरूनी तहों की पड़ताल करती हुई पुष्पा सिंघी जी चौंका जाती हैं। जघन्य यौन हिंसा को चित्रित करता उनका हाइगा वैचारिकी की हर दिशा को प्रश्नों से घेरता है- "कैंडल मार्च/करोगे कब तक/पूछती बेटी/" कन्या जन्म को उत्सव और वरदान के युग्म से संचालित करता हाइगा अंजु निगम जी की रचनाधर्मिता का मूल स्वर निवेदित करता है- "प्रभु वर है/लक्ष्मी का आगमन/धरा में आज।" बेटी अपने नन्हें-नन्हें हाथों से सौभाग्य के दर पर हौले से दस्तक देती है।


डाॅ. मधु चतुर्वेदी जी के प्राणों से निकली है नेह निर्झरिणी। उसका अनन्य प्रवाह उनकी शब्दमाला को भिगो गया है- "मैं नहीं भिन्न/माँ तेरी ममता के/हूँ पदचिह्न।" वे सांस्कृतिक विरासत की संरक्षिका हैं। समाज में कितने ही मिथक टूटे, भू लुंठित हुए, जन्मी नव संरचनाएँ। डाॅ. आनन्द प्रकाश शाक्य जी चिन्तन की धाराओं का रुख सही दिशा में मोड़ना चाहते हैं। आगाह कर रहे हैं -"झेलोगे दंश/बेटी न सुरक्षित/मिटेगा वंश।" निवेदिता श्री जी को मंज़ूर नहीं कि बेटियों की रंग मंजूषा से इन्द्रधनुष का कोई भी रंग कम हो। नवयुग की बेटी का हौसला गगनगामी है। पाँव धरती पर, इरादे आसमां तक- "छूती आकाश/भरे स्वप्न में रंग/बेटी है ख़ास।" डॉ. कल्पना दुबे जी सच कहती हैं- "प्राण अपने, देह आपनी, जीने का जज़्बा अपना, फिर गर्भस्थ कन्या को धरती पर लाने का फ़ैसला कोई और कमज़र्फ करे! कुदरत का अनूठा शाहकार है कन्या- "हँसती बेटी/बजती शहनाई/मीठी सी धुन।" इसमें शहनाई शब्द गहन अर्थवत्ता समेटे है। वहीं सरस दरबारी जी कन्या शिक्षण और उम्मीद की जुगलबंदी पेश करती हैं।देश का मन-मानस, बेटी के आगमन पर रीझे। बधाई गाये। खुश हो कि रोशनी की आमद है- "पढ़ें बेटियाँ/पीढ़ियां हों शिक्षित/जगाए आस।"

फाइटर प्लेन उड़ा रही हैं बेटियाँ। आसमां मुट्ठी में कर लेने की ललक को शतवार नमन। उसका आना घर का गुलज़ार हो जाना। फूलों के देश से संदेश पाना। डाॅ. शैलेष गुप्त 'वीर' जी के हाइगा में यही बिम्ब अंकित है- "पिता मगन/शिखर पर बेटी/छूती गगन।" बेटियों की उड़ान को साहित्यिक अभिजात्य के हवाले करती, सामाजिकता को तर्कों की पीठिका पर आश्वस्त करती अनूठी आभा से अभिमंडित हाइगा पटल पर पेश करती हैं- वर्षा अग्रवालजी- "उड़ा जहाज/मेघों से होड़ लेती/आत्मजा आज।" सुकेश शर्मा जी की ख़ूबी है कि वे हाइगा को अत्यन्त सरलता एवं सहजता से सँवारते हैं। उनकी चित्रशाला में सारे स्वर प्रकृति से प्रतिश्रुत हैं- "माँ का आनंद/जनक का विश्वास/भाई की आस।"


साहित्य भूषण डाॅ. मिथिलेश दीक्षित जी तो हाइकु विश्व का शिखर व्यक्तित्व हैं- "माँ की डायरी/काटा कूटी कर दूँ/जल्दी भर दूँ।" इस हाइगा में शब्द प्रयोग सुबह की ताजी हवा के झोंके सा मनप्राण चैतन्य कर जाता है।अतुल्य प्रयोग। यादों का गाँव तो उनका सिग्नेचर हाइगा है। रंग, रूप, पूजा, गंध, कला, संगीत सभी कुछ बेटियों के बूते है। वे सांस्कृतिक दूती हैं समाज की। सुषमा सिंह जी ने बेटी से संबंधित एक भावुक पार्श्व रचा है- "पिता औ पुत्री/गहरी होती मैत्री/राह बताते।" "स्वप्न तूलिका/अंबर कैनवस/रंग दे बेटी।" नवतावादी दष्टिकोण की परवरिश करती हुई इन्दिरा किसलय जी बेटी को निसर्ग के प्रतिमानों से अलंकृत करने में समूची हृदय सत्ता से काम लेती हैं। एक संपूर्ण दृश्य की रचनाकार हैं सुभाषिणी जी। वे अत्यल्प शब्दों में भावनाओं का महाकाव्य तरंगायित कर देती हैं- "सुगंधित हो/घर का कोना-कोना/बेटी का आना।" 5 मई, 2020 को संपन्न हाइगा सम्मेलन के श्रेयार्थी हैं- डाॅ. मिथिलेश दीक्षित जी एवं डाॅ. शैलेष गुप्त 'वीर' जी। असंख्य आभार आप विभूतिद्वय का एवं प्रियतर समस्त हाइगाकारों का।


 


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