*डॉ प्रतिभा सिंह
(1)
सुनो!
नहीं चाहिए मुझे और कुछ भी
सिवाय इसके
की कभीं थक जाऊँ
जिंदगी की राह में
तो तुम्हारी बाहों का सहारा मिल जाये
थोड़ी देर के लिए ही सही
जब कभीं हार और जीत के खेल में
निराश होने लगूं
तो तुम्हारे हाथ
मेरे कंधे पर आ जाएं
मजबूत हौसला बनकर
और जब कभीं
आँखों में आ जाये आसूं
कोई दर्द लेकर
तो तुम्हारी रुमाल बढ़कर रोक ले उसे
जमीन पर गिरने से
जब कभीं बढ़ जाये दिलपर बोझ मेरे
करनी हो ढेर सारी दिल की बातें
तब मिल जाये तुम्हारा साथ
एकांत में कहीं
पेड़ों की झुरमुट में।
जब कभीं उलझनों को
सुलझाते सुलझाते उलझ जाऊँ
तब तुम शरारत से
बिन बताए ही मुझे
सब ठीक कर दो।
जब कभीं तन्हा हो जाऊँ
जिंदगी की राह में
तो तुम मेरे ख्यालों में आकर
मेरा साथ दे दो।
जब कभीं लेने हो मुझे कठोर फैसले
और छोड़ जाए पूरी दुनियाँ मुझे मझधार में ही
उस वक्त तुम्हारी आँखों का इशारा मिल जाये
मैं हूँ न तुम्हारे साथ।
(2)
सुनो!
तुमने कहा था
तुम लौट आओगे
शाम होने से पहले।
जब सूरज ढल जाएगा
चाँद मुस्करा उठेगा
और चाँदनी बिखर जाएगी
फूलों के अवगुंठन तक।
ठंडी हवा के झकोरे
आनंदित करेंगे तन- मन
तुम लौट आओगे,
पर तुम नहीं आये।
तुमने कहा था
रात गहराने से पहले
लौट आओगे
जब सारा जहां नींद में होगा
घर के कोने से लेकर
दूर सिवान तक
सन्नाटा पसर जाएगा
जब रात अपने आँचल से
दिन की कृतिमता को ढंक लेगी
जब दूर -दूर तक सिर्फ अँधेरा होगा।
तुम लौट आओगे
पर तुम नहीं आये।
तुमने कहा था
भोर जाने से पहले
लौट आओगे
जब तारे डूब रहे होंगे
आसमान की गोद में,
चाँद मुस्करा रहा होगा
सूरज की अगवानी में
जब मलयज
बिखेर रही होगी सुंगन्ध
चहुँ ओर
जब पंक्षी कलरव को आतुर होंगे
जब सूरज की छाया पूर्वी क्षितिज को
रक्तिम कर रही होगी,
तुम लौट आओगे
पर तुम नहीं आये।
इसी तरह
पूरा दिन,हप्ता महीना
और साल बीत गया
तुम नहीं आये
मुझे पता है
तुम नहीं आओगे,
कभीं नहीं।
फिर भी मैं प्रतीक्षारत हूँ
तो जानते हो क्यों?
क्योंकि
प्रतीक्षा ही आशा है
जिसकी रौशनी में
पार हो जाती है
जीवन की कठिनतम डगर।
पर तुम ?
यूँ ही मेरी स्मृतियों में
सुगन्ध बनकर बहोगें
जीवन से पहले
और जीवन के बाद भी।
*डॉ प्रतिभा सिंह,आजमगढ (यू पी)
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