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सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् कर्मान्त से ही मानव को मुक्ति



*डॉ सिकंदरलाल


संसार का प्रत्येक मानव ब्रह्म है,अर्थात परमात्मा है। क्योंकि परमात्मा संसार के प्रत्येक मानव एवं जीव-जन्तु में है, तभी तो संसार का प्रत्येक मानव एवं जीव-जन्तु चलता- फिरता है, तभी तो क्रमशः परमज्ञानी सन्त कबीरदास एवं सन्त  तुलसीदास लिखते हैं कि- ऐसे घटि- घटि राम हैं । सीय राममय सब जग जानी । रामचरितमानस बालकाण्ड, हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। रामचरितमानस बालकाण्ड, इसलिए  प्रत्येक मानव एवं जीव-जन्तु में ब्रह्म अर्थात् राम स्वरूप परमात्मा होने के कारण प्रत्येक मानव एवं जीव-जन्तु शूद्र- ब्राह्मण होता है । वह अलग बात है कि कुछ अज्ञानी एवं मूर्ख व्यक्तिओं ने जन्म के आधार पर अपने- आपको ब्राह्मण- शूद्र माना । जबकि ईश्वर ने संसार के किसी भी व्यक्ति के शरीर पर पहचान के लिए शूद्र- ब्राह्मण आदि का ठप्पा या मुहर लगाकर , जन्म नहीं दिया है । राष्ट्र के विकास में, छल-कपट आदि नकारात्मक भाव से रहित  तथा ईमानदार होकर नि: स्वार्थी भाव से जो व्यक्ति जिस सकारात्मक सोच के साथ, जिस सत्कर्म में समर्पित होता है, वही उस व्यक्ति की पहचान है। यह भी बात सत्य है कि समय- समय पर व्यक्ति का स्वरूप एवं पहचान सत्कर्म के अनुसार बदलता रहता है, फिर वह व्यक्ति चाहे जिस परिवार का हो । सब कुछ छोड़ना ही है इसलिए संसार का प्रत्येक मानव शूद्र अर्थात् संन्यासी ही रहता है क्योंकि संन्यासी अर्थात् सांसारिक मोह-माया अर्थात् शरीर,घर - परिवार, सम्पूर्ण धन - दौलत आदि सब कुछ छोड़ना पड़ेगा इसलिए व्यक्ति को हवश नहीं करना चाहिए । ईशावास्योपनिषद् में भी इस संदर्भ में स्पष्ट कहा गया है कि -


ईशावास्यमिदं सर्वं यत् किंच जगत्यां जगत् । तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधा कस्विद् धनम्।।


भावार्थ -   इस सम्पूर्ण संसार में जो कुछ भी जड़ -चेतन प्राणी ( मानव एवं  जीव-जन्तु ) है वह सब ईश्वर से परिव्याप्त है इसलिए ( हे मनुष्य ! ) त्याग करते हुए उपभोग करो, यह धन किसी का नहीं है अर्थात् हे मनुष्यों! इस संसार में जो कुछ भी पदार्थ ( वस्तु) है, उसमें सबका हिस्सा है इसलिए आपस में एक- दूसरे को ठगकर, छल -कपट करके अपना घर - परिवार मत सजाओ अपितु ईमानदारी, छल-कपट से रहित होकर नैतिकता पूर्ण जीवन यापन करो, इसी में आप सबकी भलाई है , जो कि पूर्णतः सत्य है लेकिन कुछ मूर्ख एवं अज्ञानी मनुष्यों ने धन-दौलत​, पद-प्रतिष्ठा , रूप-सौन्दर्य इत्यादि को ही अपना मानकर फूले नहीं समाता और जन्म के आधार पर अपने को ऊँच- नीच, छूत- अछूत आदि नकारात्मक भाव को मानकर आपस में ही लड़ते- भिड़ते हुए  कटते -मरते रहते हैं और अंहकार आदि में डूबकर तनावग्रस्त रहते हैं । ये  कुछ मूर्ख मनुष्यों के कुलक्षण सन्दर्भ में  में परमज्ञानी सन्त तुलसीदास जी लिखते हुए कहते हैं कि


नर पीड़ित रोग न भोग कहीं।अभिमान बिरोध अकार नहीं।।


लघु जीवन संबतु पंच दशा। कल्पांत न नाश गुमानु असा।।  


ऊँच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती।।


जे जन्मे कलिकाल कराला ।करतब बायस बेस मराला ।।


चलत कुपंथ बेद मग छाड़े ।कपट कलेवर कलि मल भाड़े ।।


तामस बहुत रजोगुन थोरा ।कलि प्रभाव बिरोध चहु ओरा ।।


पर त्रिय लंपट कपट सयाने ।मोह द्रोह ममता लपटाने ।।


अनुज बहुत भगिनी सुत नारी ।सुनु सठ कन्या सम ए चारी ।।


इन्हहि  कुदृष्टि बिलोकई जोई ।ताहि बधे कछु पाप न होई ।


बिप्र निरक्षर लोलुप कामी ।निराचार सठ बृषली स्वामी।।  


बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रही बिरती ।।


तपसी धनवंत दरिद्र गृही ।कलि कौतुक तात न जात कही ।।


धनवंत कुलीन मलीन अपी ।द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी ।।


सोइ सयान  जो परधन हारी। जो कर दंभ सो बड़ आचारी।।


जो कह झूँठ मसखरी जाना ।कलिजुग सोई गुणवंत बखाना ।।


जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ ।


मन क्रम बचन लबार तेई बकता कलिकाल महुँ ।।


असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं ।


तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं ।।


मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा।पंडित सोइ गाल बजावा  ।।


मिथ्यारंभ दंभ रत जोई ।ता कहुँ संत कहइ सब कोई।।


निराचार जो श्रुति पथ त्यागी।कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी।।


जाके नख अरु जटा बिसाला ।सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला।।


तामस धर्म करहिं नर जप तप ब्रत मख दान ।


 


दम दान दया नहिं जानपनी ।जड़ता परबंचनताति घनी ।।


तनु पोषक नारि नरा सगरे ।परनिंदक जे जग मो बगरे  ।।


हरइ सिष्य धन सोक न हरई।सो गुर घोर नरक महुँ परई ।।


गुर सिष बधिर अंध का लेखा । एक न सुनइ एक नहिं देखा ।।


कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ । दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ ।।


श्रुति संमत हरि भक्त संजुत बिरति बिबेक ।तेहिं न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक ।।


कबि बृंद उदार दुनी न सुनी ।गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी ।।


जबकि सच यह है-


यह तन काँचा  कुम्भ है,लियाँ फिरै था साथ ।


ढबका लागा फूटि गया,कछु न आया हाथ।।


कबीर कहा गरबियौ , ऊँचे देखि अवास ।


काल्हि पर्यूँ भवै लोटणा , ऊपरि जामै घास ।।


कबीर कहा गरबियौ , देहीं देखि सुरग ।


बीछड़ियाँ मिलिबौ नहीं,ज्यूँ  काँचली  भुवंग ।।


का  माँगूँ  कछु  थिर न  रहाई, देखत नैन  चल्या जग  जाई।।


इक लख पूत सवा लख नाती, ता रावन घरि दिया न बाती । ।


लंका-सा कोट समुद्र-सी खाई, रावन की खबर न पायी ।।


आवत  संगि न  जात  संगाती, कहा भयो  दरि  बाँधे  हाथी ।।


कहैं कबीर अंत की बारी, हाथ झाड़ि जैसे चले जुवारी।।


करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तसु फल चाखा ।।


परहित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।


संसार में कुछ मनुष्य ऐसे भी हुए हैं जो अपने मानवीय धर्म ( माननीय धर्म के अन्तर्गत व्यक्ति के मन- वाणी- कर्म में यह सब भावनाओं का होना अनिवार्य है -- अपने पद- प्रतिष्ठा तथा ज्ञान आदि का दुरूपयोग करते हुए सरकार को धोखा न देना एवं भोले -भाले मानवों का शोषण करके अपना घर-परिवार आदि न सजाना, व्यक्ति में, मानव एवं जीव-जन्तु के प्रति दया, जान-बूझकर बेईमानी न करना, अपने सरकारी संस्थान के प्रति गद्दारी न करना । व्यक्ति राष्ट्र हित में सोचे और सत्कर्म करें न कि कोई पार्टी हित में। आय से अधिक कमाई के बारे में न सोचना और न ही करना । सरकार का कोई भी वस्तु अपने व्यक्तिगत कार्य के लिए प्रयोग न करना । फर्जी बिल- बाउचर लगाकर सरकार का पैसा न ऐंठना, सरकार के किसी भी काम का ठेका लेकर यथा स्थित मजबूर बनाना न कि कमजोर काम करना, न्यायधीश, एडवोकेट, पुलिस, अधिकारी आदि बनकर न्याय करना न कि पक्षपात पूर्ण निर्णय देना, जान-बूझकर अपने सरकारी संस्थान- विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय आदि न जाकर पूरा वेतन लेने की इच्छा न रखना, शुल्क के नाम पर विद्यार्थियों का शोषण न करना, विद्यार्थी से जाति, धर्म,रूप-रंग,गरीबी, कमज़ोरी आदि के कारण घृणा न करना। धर्म के नाम पर जमीन कब्जा करके और इसमें मन्दिर- मस्जिद-चर्च- गुरुद्वारा आदि का निर्माण करके तथा इसमें रहकर भोले-भाले मानव को झूठ -मूठ का प्रवचन देकर, उनके मेहनत की कमाई को न ठगना । अवैध तरीके से जमीन न कब्जा करना । धर्म के नाम पर मन्दिर- मस्जिद-चर्च -गुरुद्वारा आदि का निर्माण न करना, क्योंकि इससे जमीन कब्जा होती है, किसान देवता कहाँ से धर्म के नाम पर कब्जा करने वाले मूर्खो के लिए बैठे- बैठे खाने हेतु अधिक अन्न उपजाये । धर्म एवं कुम्भ पर्व के नाम पर माँ गंगा जैसी महान् नदियों के तट को कब्जा न करना और इनके पावन जल में अपने तन एवं कपड़े के मैल को न धोना । जन्म, जाति, रूप-रंग,पद- प्रतिष्ठा, धन -दौलत, जमीन - जायजाद आदि के आधार पर अपने को ऊँच- नीच,छूत- अछूत, स्पृश्य- अस्पृश्य, सुरूप -कुरूप आदि न मानना अपितु सुकर्म /कुकर्म के आधार पर मानना। काम, क्रोध,मद, लोभ, दम्भ, दुर्भाव,द्वेष आदि अनैतिकता से रहित ) के कारण  जन्म  से लेकर और संसार को छोड़ने तक शूद्र  अर्थात् संन्यासी बने ही रहे हैं। जैसे कि - संत कबीरदास , सन्त तुलसीदास, डा भीमराव अम्बेडकर, डॉ राममनोहर लोहिया, श्री दीन दयाल उपाध्याय आदि अनेकों देश-विदेश के विभिन्न महापुरुष एवं कवि - महाकवि आदि। तभी तो परमज्ञानी सन्त तुलसीदास रामचरितमानस ​में  लिखते हैं कि  -    


सो तुम्ह जानहु अंतरजामी ।पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी ।।


करम प्रधान बिस्व करि राखा । जो जस करइ सो तस फल चाखा ।।


नाथ सकल संपदा तुम्हारी। मैं सेवक समेत सुत नारी।।


अर्थात् हे परमेश्वर जो आपने सदुपयोग करने के लिए सम्पूर्ण सम्पत्ति (धन-दौलत) आदि दिया है, वह सब आपका ही है। मैं​ तो बाल-बच्चे ,पत्नी सहित आपके द्वारा बनाई गई रचना- मानव एवं जीव-जंतु की अपनी क्षमतानुसार​ सेवा-सुरक्षा करता हुआ मानों  सेवक अर्थात् संन्यासी ही हूँ।


सम्पूर्ण संसार का मानव शूद्र है यह बात ऋग्वेद पुरुष के 10/90 के 12 , 03 ,01 ,04 ,05  और 14 वें मंत्र से पुष्टि होती है, जिस मंत्र की आंशिक (मुख्य) पंक्ति इस प्रकार है-- 03 से क्रमशः -- पादोअ्स्य विश्वा भूतानि (उस पुरुष रूपी परमात्मा का पैर सम्पूर्ण मानव एवं जीव-जंतु से युक्त संसार है ),स भूमिं विश्वतो (उस परमात्मा के पैर को सम्पूर्ण भूमि कहा गया है ), पादोअ्स्येहाभवत् (उस परमात्मा का पैर ही यह लोक हुआ ), पश्चाद् भूमिमथे पुर: (परमात्मा ने अपने पैर को आगे-पीछे करके भूमि को बनाया ), पदाभ्यां भूमि: (पुरुष रूपी परमात्मा के पैर को ही भूमि कहा गया ) और माँ गंगा को भी भगवान् विष्णु के पैर से उत्पन्न होने के कारण विष्णुपदी कहा गया । अब इन मंत्रों के भावार्थ से स्पष्ट है कि जब पुरुष रूपी परमात्मा के पैर से भूमि से युक्त सम्पूर्ण संसार का निर्माण हुआ तब इस भूमि पर रहने वाला​ कौन है? अर्थात् इस भूमि पर रहने​ वाला​ सम्पूर्ण मानव एवं जीव-जंतु है । इस प्रकार से स्पष्ट है कि भूमि से युक्त समस्त संसार रूपी धाम में विराजमान् सम्पूर्ण मानव एवं जीव-जंतु शूद्र है क्योंकि इन सम्पूर्ण मानव एवं जीव-जंतु को इसी संसार में सब कुछ छोड़कर​ ईश्वर के पैर रूपी धाम में विराजमान् रहना है। जीव-जंतु एवं महापुरुष तो जन्म से लेकर जीवन पर्यन्त त्याग- तपस्या आदि की भावना से ही जीवन का निर्वाह करते हैं , परन्तु कुछ मूर्ख एवं अज्ञानी मनुष्य अपने को जन्म के आधार पर ब्राह्मण का अर्थ ऊँच एवं शूद्र का अर्थ नीच मानकर आपस में लड़-भिड़कर असमय में ही शरीर को छोड़कर कहीं का नहीं रह जाते , तभी तो परम् ज्ञानी सन्त तुलसीदास अपने पावन ग्रन्थ रामचरितमानस में लिखते हैं कि –


वरण धरम नहिं  आश्रम चारी ।श्रुति विरोध रत सब नर नारी ।।


द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन । कोउ नहिं  मान निगम अनुसासन ।।


इरिषा परुषाच्छर लोलुपता । भरि पूरि रही समता बिगता ।।


सब लोग बियोग  बिसोक हुए । बरनाश्रम धर्म अचार गए ।।


अर्थात् जहाँ चार आश्रम [ जन्म से लेकर 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्य आश्रम = प्रत्येक मानव ब्राह्मण अर्थात् यह समय वेद आदि विषयों में समाये ज्ञान - विज्ञान का अध्ययन एवं चिन्तन - मनन होता है । 26 वर्ष से लेकर 50 वर्ष तक गृहस्थाश्रम = प्रत्येक मानव क्षत्रिय अर्थात् यह समय अपनी क्षमतानुसार अपने घर- परिवार तथा समाज में विराजमान् मानव एवं जीव-जन्तु रूपी मूर्तियों  का भरण -पोषण होता है । 51 वर्ष से लेकर 75 वर्ष तक वानप्रस्थ आश्रम= प्रत्येक मानव वैश्य, यह समय आरण्यक में समाये ज्ञान -विज्ञान के अनुसार चिन्तन - मनन करते हुए जीवन निर्वाह करने का होता है और 76 वर्ष से लेकर जब तक मानव इस संसार में सशरीर रहे संन्यास आश्रम= संसार का प्रत्येक मानव शूद्र है अर्थात् पूर्व तीनों आश्रम में वेद सम्मत समाये ज्ञान- विज्ञान से युक्त चिन्तन - मनन को अपने मन -वाणी-कर्म  में धारण करते हुए उपनिषदों का अध्ययन और इसमें समाये ज्ञान - विज्ञान के अनुसार चिन्तन - मनन करते हुए जीवन यापन करते रहना चाहिए । कहने का तात्पर्य यह है कि मानव जन्म से लेकर जीवन पर्यन्त, अपने- आपको  काम,क्रोध,मद, लोभ ,दम्भ, दुर्भाव तथा द्वेष आदि अनैतिक प्रवृत्ति से दूर रखकर ,आध्यात्मिक एवं सकारात्मक युक्त जीवन निर्वाह करे । (भारतीय संस्कृति के अनुसार) को वरण करने के कारण ,मानव वर्ण कहलाये। इसलिए जन्म के आधार पर संसार का कोई भी मानव ब्राह्मण- क्षत्रिय- वैश्य-शूद्र नहीं है बल्कि प्रत्येक मानव ब्राह्मण - क्षत्रिय- वैश्य- शूद्र है । सन्त तुलसीदास जी कहते हैं कि वैदिक ऋषि के चिन्तन -मनन के परिणाम स्वरूप इन आश्रमों में समाये ज्ञान- विज्ञान के अनुसार कुछ मूर्ख एवं अज्ञानी स्त्रियों- पुरुषों का जीवन शैली नहीं रहा। परम ज्ञानी सन्त तुलसीदास इसीलिए कहा कि कुछ मूर्ख एवं अज्ञानी व्यक्तियों को मालूम होना चाहिए कि ब्राह्मण का अर्थ ब्रह्मचर्य आश्रम व्यतीत करने वाला और शूद्र का अर्थ संन्यासी अर्थात् सब कुछ छोड़कर ईश्वर के चरण रूपी धाम में विराजमान् रहने वाला होता है। इसीलिए संसार के अधिकतर कवियों महापुरुषों ने अपने को ईश्वर का सेवक मानते हुए अपने नाम के आगे दास लगाये या फिर अपने नाम को सर् नेम इत्यादि से मुक्त ही रखा और यदि किसी महापुरुष के नाम में उपनाम रहा भी होगा फिर भी ये महापुरुष अपने को जाति, धर्म रूप-रंग इत्यादि से संसार में मौजूद कुछ मूर्खो की भाँति, अपनी पहचान नहीं जनाई बल्कि ये महापुरुष अपने सत्कर्मों ( भारत माता से युक्त संसार रूपी पावन धाम में विराजमान् सम्पूर्ण मानव एवं जीव-जन्तु रूपी मूर्तियों की, जाति, धर्म,रूप-रंग इत्यादि से परे होकर, अपनी क्षमतानुसार सेवा- सुरक्षा करना ही मानव की पहचान है न कि जाति, धर्म,रूप-रंग तथा नाम आदि से। इस सन्दर्भ में परम् ज्ञानी सन्त तुलसीदास ने लिखा है कि - * बिस्व भरन पोषन कर जोई । ताकर नाम भरत अस होई ।। संसार रूपी पावन धाम में अपनी पहचान जनाई । जैसे कि महाकवि एवं आचार्य- कबीर दास, तुलसीदास, भामह, दंडी, राजशेखर, सूरदास, मम्मट, कालिदास, भवभूति, वामन,कुन्तक, राम, लक्ष्मण,भरत आदि। अतैव इन सभी महामानवों को मुक्ति अर्थात् परमानन्द की प्राप्ति हुई। इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से हम स्पष्ट रूप में कह सकते हैं कि उपर्युक्त कर्म स्वरूप सम्यक् ज्ञान से युक्त ही मानव को मुक्ति मिलेगी।


मैं क्रमशः महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर, महात्मा गाँधी, श्री लालबहादुर शास्त्री के इस नारे से मैं अपनी चिन्तन स्वरूप बाणी को विराम देता हूँ-


एकला चलो रे। करो या मरो । जय जवान जय किसान ।


मानव एवं जीव -जन्तु रूपी मूर्तियों से युक्त महान् भारत देश रूपी पावन धाम की जय!


*डॉ० सिकन्दर लाल,प्रतापगढ़ (उ.प्र)


 


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