*डॉ विजेता साव
वह अकेली थी ।जितनी बाहर से उससे कहीं ज्यादा अंदर से ।शायद यह अकेलापन उसकी नियति थी ।लोग तो कई जिंदगी की राह पर चलते चलते कुछ कुछ देर के लिए साथ चलने ,साथ देने के लिए आए पर हर बार किसी न किसी वजह से साथ छूटता गया लोग बिछड़ते गए और रह गई वह अकेली की अकेली ।पर ,वह रोती नहीं ,ना ही कभी किसी को कोसा ना खुद को ,ना अपने भाग्य को ।गजब की ताकत थी उसमें बार बार गिरकर भी उठने की ,टूट कर भी बने रहने की, नाकामयाब होने पर भी बार-बार प्यार करने की।
'प्यार '....हां 'प्यार 'ही तो था जिससे वह बनी थी ,'प्यार 'ही तो था जिसने उसे बनाए रखा था हर झंझावातों में भी उसे टिकाए रखा था। प्यार के बिना जैसे वह रह नहीं सकती थी। शायद ,वह बनी ही प्यार करने ,देने और प्यार से भरने के लिए खुद को भी और शायद उस हर किसी को जो उसे देखने मात्र ही से खुद को भरा हुआ महसूसता था। जाने क्या जादू था उस जादूगरनी में ...एकहरा बदन ,छोटी लेकिन गंगा सी पवित्र आंखें जिसमें झांकने से पापी, खल, कामी भी मानो साफ हो गया हो... जमे तालाब के ऊपर से काई जैसे छटं गई हो और वह महसूसता हो खुद को एक मीठे पानी की झील के सामने। जाने कितने आए उसकी आंखों में डूब खुद को निर्मल कर अपनी-अपनी राह मन में चंदन की खुशबू और शीतलता लिए चले गए ...रह गई वह अकेली... हर बार दूसरों को भरती... खुद को खाली करती ....।लेकिन यही तो बात थी कि जाने क्या ?कहां ?उत्स था उसका ,जो कभी उसे खाली नहीं होने देता ।वही भराव ,वही तरंग ,वही मिठास ,वही निर्मलता जब भी उसे देखा वह भरी ही दीखी मीठे पानी की झील सी ....बरसों बाद उसी तट से फिर गुजरा सच कहूं तो उसी जादूगरनी की चाह लिए फिर से गुजरा ।उसकी देहली से बंद सांकल खटखटाया ....जुगाड़ता रहा भीतर ही भीतर कहीं हिम्मत उसकी आंखों में झांकने की ...करता रहा प्रतिक्षा दरवाजे के खुलने की ...धीरे-धीरे दिखने लगी... उसके पैरों की दूधिया सुंदर उंगलियां, काली साड़ी में झिलमिलाता उसका गोरा तन.. पतली कमर तक लहराते बिखरे उसके केश, नागिन के दंश सा महसूसता खुद में देखा उसकी आंखें... अब भी वही गहराई ,वही निर्मलता, वही जादू ...पाकर संकेत घर के भीतर गया ।
मन ने चाहा मांग लूं आज अपने किए बरसों पहले की बुजदिली की माफी... बहुत कुछ कहना चाहा, पूछना चाहा.. उसके पैरों पर गिरकर उसके अकेलेपन की वजह की माफी मांगना चाहा पर ...पर कुछ भी कह ना सका। शब्द सारे कहीं खो गए, आज भी उसकी दृढ़ता ,उसका आत्मविश्वास ,उसके चेहरे की आभा सब कुछ ...उसकी निश्चलता, उसकी सच्चाई ने मुझे निस्तेज कर दिया। गूंगा सा मैं सिर्फ उसे देखता रहा ...शायद साहस जुगाड़ता रहा भीतर ही भीतर खुद के किए अपराधों की माफी ..."आखिर क्यों इतनी अच्छी हो तुम तुम्हारे सामने आते ही मैं खुद को ...तुम्हारे लायक नहीं समझ पाता .." बिखरे टूटे शब्दों को जो जोड़ते समेटते उसने सुना और मुस्कुराते हुए बोली .."सुना था कि कुआं कभी प्यासे के पास नहीं आता ।मैं मीठे पानी की ताल हर बार आई... तुम्हारे पास !क्या हुआ?? हंस रहे हो कि भरे ताल को भी प्यास हो सकती है ??हां! प्यासी हूं ,भरी हूं.. फिर भी प्यासी.. देखा है कभी भरे हुए को भी खाली रहते ??हो सके तो एक बार झील के आईने में सामने खड़े हो खुद को निहारना.....।
*डॉ विजेता साव
कोलकाता, पश्चिम बंगाल
साहित्य, कला, संस्कृति और समाज से जुड़ी लेख/ रचनाएँ/ समाचार अब नये वेब पोर्टल शाश्वत सृजन पर देखे- http://shashwatsrijan.com
0 टिप्पणियाँ