*सरिता सुराणा
आज सम्पूर्ण विश्व जिस महामारी की चपेट में है, उसका एक प्रमुख कारण मनुष्य जाति द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन तो है ही साथ ही अन्य जीव-जंतुओं के जीवन के साथ खिलवाड़ करना भी है। जैन धर्म की मान्यतानुसार इस पृथ्वी पर विचरण करने वाले समस्त जीवों की 84 लाख जीव योनियों में मनुष्य योनि सर्वश्रेष्ठ है। इस दृष्टि से संसार के समस्त प्राणियों की रक्षा करने का दायित्व भी उसी का है। परन्तु विडम्बना यह है कि आज मनुष्य ही उन सब प्राणियों के जीवन का भक्षक बन गया है। आज मानव जाति की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है और अन्य जीवों की प्रजातियां विलुप्त होती जा रही हैं। अतः आज भगवान महावीर के सिद्धांत 'जीओ और जीने दो' का महत्व और बढ़ गया है। भगवान महावीर ने जिस युग में जन्म लिया था, उस समय भी यज्ञ और कर्मकांड इतने अधिक बढ़ गए थे कि जनता उनसे त्राहिमाम-त्राहिमाम करने लगी थी और उन सबसे छुटकारा पाना चाहती थी। ऐसे में भगवान ने 12 वर्षों तक कठोर तपस्या करके केवल ज्ञान प्राप्त किया और हिंसा से त्रस्त मानव जाति को अहिंसा का संदेश दिया। भगवान महावीर ने अपने पूर्ववर्ती तीर्थंकरों की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए साधु-साध्वियों के लिए पांच महाव्रतों और श्रावक-श्राविकाओं के लिए अणुव्रतों के पालन पर जोर दिया। उनके द्वारा प्रदत्त सिद्धांत जितने उस युग में कल्याणकारी थे, उतने ही आज़ भी हैं। आइए जानते हैं भगवान महावीर के प्रमुख सिद्धांतों के बारे में-
अहिंसा
जीवन का पहला मूलभूत सिद्धांत देते हुए भगवान महावीर ने कहा है ‘अहिंसा परमो धर्म’। इस अहिंसा में समस्त जीवन का सार समाया है, इसे हम अपनी सामान्य दिनचर्या में 3 आवश्यक नीतियों का पालन कर समन्वित कर सकते हैं।
1- कायिक अहिंसा (कष्ट न देना): यह अहिंसा का सबसे स्थूल रूप है जिसमें हम किसी भी प्राणी को जाने-अनजाने अपनी काया द्वारा हानि नहीं पहुंचाते। मानव जीवन की सार्थकता इसी में निहित है कि वह संसार के समस्त प्राणियों की रक्षा करे। उसके पास दूसरों को कष्ट से बचाने की अद्भुत शक्ति है। अतः स्थूल रूप से अहिंसा को मानने वाले किसी को भी पीड़ा, चोट, घाव आदि नहीं पहुँचाते।
2- मानसिक अहिंसा (अनिष्ट नहीं सोचना): अहिंसा का सूक्ष्म स्तर है किसी भी प्राणी का अनिष्ट, बुरा या हानिकारक नहीं सोचना। हिंसा से पूरित मनुष्य सामान्य रूप से दूसरों को क्षति पहुँचाने की वृत्ति से भरा होता है लेकिन अहिंसा के सूक्ष्म स्तर पर किसी की भी भावनाओं को जाने-अनजाने ठेस पहुँचाने का निषेध है।
3- बौद्धिक अहिंसा (घृणा न करना): अहिंसा के सूक्ष्मतम स्तर पर ऐसा बौद्धिक विकास होता है कि जीवन में आने वाली किसी भी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति के प्रति घृणा के भाव का त्याग हो जाता है। हम निरंतर अपने आस-पास की उन वस्तुओं, व्यक्तियों, परिस्थितियों के प्रति घृणाभाव से भरे रहते हैं जो हमारे प्रतिकूल हों अथवा जिन्हें हम अपने अनुकूल न बना पा रहें हों। यह घृणा की भावना हमारे भीतर अशांति, असंतुलन व असामंजस्य उत्पन करती है। अतः अहिंसा का सूक्ष्मतम स्तर पर प्रयोग करने के लिए हमें किसी भी प्राणी से घृणा न करते हुए जीवन की हर परिस्थिति को सहर्ष स्वीकार करने की कला सीखनी चाहिए।
सत्य
धर्म जगत में सत्य के सिद्धांत की व्याख्या सबसे अधिक भ्रांतिपूर्ण प्रकार से की जाती है। हम अपने बच्चों व युवा पीढ़ी को जैन सिद्धांत समझाते हुए हमेशा सत्य बोलने की प्रेरणा देते हैं। अवश्य ही भगवान के सत्य महाव्रत के भीतर गहरा आध्यात्मिक आशय समाहित है। इसलिए ‘श्रीमद राजचंद्र मिशन’ में हम इस सिद्धांत का अभिप्राय मानते है ‘सही चुनाव करना’। हमें अपने मन और बुद्धि को इस प्रकार अनुशासित व संयमित करना है कि जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में हम सही क्रिया व प्रतिक्रिया का चुनाव करें। अतः ‘सत्य’ सिद्धांत का अर्थ है -
1- उचित व अनुचित में से उचित का चुनाव करना
2- शाश्वत व क्षणभंगुर में से शाश्वत का चुनाव करना
जब सदगुरु द्वारा प्रदत्त शिक्षाओं को हम अपने जीवन का आधार बनाते हैं तो उपरोक्त कथित सत्य का सार हमारे मन व बुद्धि को शुद्ध करते हुए, जीवन की प्रत्येक अवस्था में हमें उचित व शाश्वत का चुनाव करने की सहज प्रेरणा देता है।
अचौर्य
चेतना के उन्नत शिखर से दिए गए भगवान महावीर के अचौर्य महाव्रत को हम संसारी जीव अपनी सामान्य बुद्धि द्वारा पूर्णतया समझ नहीं पाते। हम दूसरों की वस्तुएँ न चुराना ही इसका अभिप्राय मानते रहे हैं परन्तु भगवान अपनी पूर्ण जागृत केवलज्ञानमय अवस्था से इतना साधारण संदेश नहीं दे सकते। इस महाव्रत का एक दूसरा ही गहरा प्रभावशाली आयाम है। इसका गहन आध्यात्मिक अर्थ है- शरीर-मन-बुद्धि को मैं नहीं मानना। मैं शुद्धचैतन्य स्वरुप हूँ तथा शरीर-मन-बुद्धि इस मानव जीवन का यापन करने हेतु मात्र साधनरुप हैं जिनके द्वारा हम अपने यथार्थ स्वरुप तक पहुँच सके। जैसे जल से भरी मटकी का कार्य केवल जल को अपने भीतर संभालना है ; मटकी जल नहीं है। प्यास जल से बुझती है, मटकी से नहीं। इसी प्रकार चेतना इस शरीर-मन-बुद्धि में व्यापक है परंतु वह ‘मैं’ अर्थात स्वरुप नहीं है। अपनी अज्ञान अवस्था से बाहर आकर जब हम अपने शुद्ध आत्मिक स्वरुप को ही ‘मैं व मेरा’ मानते हैं तभी भगवान द्वारा प्रदत्त अचौर्य के सिद्धांत का पालन होता है।
ब्रह्मचर्य
यह सिद्धांत उपरोक्त ३ सिद्धांतों — अहिंसा, सत्य, अचौर्य के परिणामस्वरूप फलीभूत होता है। इसका शाब्दिक अर्थ है ‘ ब्रह्म + चर्य ‘ अर्थात ब्रह्म (चेतना) में स्थिर रहना। जब मनुष्य उचित-अनुचित में से उचित का चुनाव करता है एवं अनित्य शरीर-मन-बुद्धि से ऊपर उठकर शाश्वत स्वरुप में स्थित होता है तो परिणामतः वह अपनी आनंद रुपी स्व सत्ता के केंद्र बिंदु पर लौटता है जिसे ब्रह्मचर्य कहा जाता है। शरीर-मन-बुद्धि को ‘मैं’ मानने की धारणा से बाहर निकलने के परिणामस्वरूप शारीरिक साहचर्य व संभोग की चाहतें गिरती हैं- इस अवस्था को हम ब्रह्मचर्य मान सकते हैं क्योंकि जब अपने ही शरीर से मोह (मेरापना) नहीं रहता है तब किसी शरीर से भोग की तृष्णा को छोड़ पाना अत्यंत सरल हो जाता है।
अपरिग्रह
जो स्व स्वरुप के प्रति जागृत हो जाता है और शरीर-मन-बुद्धि को अपना न मानते हुए जीवन व्यतीत करता है उसकी बाह्य दिनचर्या संयमित दिखती है, जीवन की हर अवस्था में अपरिग्रह का भाव दृष्टिगोचर होता है तथा भगवान महावीर के पथ पर उस भव्यात्मा का अनुगमन होता है।
अपरिग्रह के निम्नलिखित तीन आयाम हैं -
1- वस्तुओं का अपरिग्रह: जैसे-जैसे हम शाश्वत चैतन्य सत्ता की निकटता में आते हैं , वैसे-वैसे क्षणिक सांसारिक वस्तुओं का मोह छूटता है। अतः वस्तुओं की उपलब्धता अथवा गैर उपलब्धता दोनों ही स्थितियों में समान भाव रहता है तथा मानसिक व शारीरिक व्याकुलता नहीं होती।
2- व्यक्तियों का अपरिग्रह: संसार की लीला में व्यक्ति आते हैं; अपनी भूमिका निभाते हैं व चले जाते हैं। जिसे इस स्वांग की वास्तविकता का बोध हो जाता है वह इस अभिनय के पार जाकर अपने निज स्वरूप को पहचान लेता है। जैन के रूप में जीवन व्यतीत करता हुआ मनुष्य व्यक्ति रूपी परिग्रह में मूर्छित नहीं रहता। वह चाहे जहाँ भी रहे — जनसमूह में अथवा एकांत में, हमेशा प्रसन्नचित रहता है क्योंकि उसकी शांति व आनंद बाह्य जगत से नहीं अपितु भीतर स्वात्म के अनंत स्रोत से उत्पन्न होती है।
3- विचारों का अपरिग्रह: जागृत अवस्था को प्राप्त हुए मनुष्य सर्व समावेशी मानसिकता धारण करते हुए विचारों के आग्रह का त्याग करते हैं। वे भगवान महावीर द्वारा प्रणीत अनेकांतवाद व स्याद्वाद के सिद्धांत को हृदयगत करते हुए सभी के विचारों का सम्मान करते हैं। वे मानते हैं कि कोई भी विचार परम या संपूर्ण नहीं हो सकता क्योंकि केवल शुद्ध चैतन्य स्वरुप ही परम व संपूर्ण है जिसे विचारों के पार जाकर ही अनुभव किया जा सकता है।
इस प्रकार जैन धर्म के ये 5 सिद्धांत जीवन व्यापन की ऐसी शैली प्रदान करते हैं जिससे हम इस मानवीय शरीर से मुक्ति मार्ग की ओर अग्रसर हो सकें, आत्म-निरीक्षण करते हुए अपने शुद्ध चैतन्य आत्म-स्वरूप तक पहुँच सकें।
*सरिता सुराणा, हैदराबाद
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