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मानवीय मूल्यों, उच्च आदर्शों और राष्ट्रीयता का जीवंत दस्तावेज है- 'जीना इसी का नाम है'



पुस्तक: जीना इसी का नाम है


लेखक: राजकुमार जैन राजन

प्रकाशक: अयन प्रकाशन, 1/20, महरौली, 

नई दिल्ली- 110030

संस्करण: 2020

मूल्य: 200/- (सजिल्द)

'जीना इसी का नाम है' राजकुमार जैन राजन का सद्य: प्रकाशित आलेख-संग्रह है। जैसा कि लेखक ने स्पष्ट किया है कि ये आलेख पिछले 30 वर्षों के कालखंड में अलग-अलग समय और अवसरों पर विभिन्न पत्रिकाओं का संपादकीय दायित्व निभाते हुए लिखे गए हैं, वे पुस्तकाकार में आज हमारे सामने हैं। राजन बाल साहित्यकार के रूप में भी जाने जाते हैं, लेकिन इस आलेख संग्रह को पढ़ने से उनका एक नया रूप हमारे समक्ष प्रकट होता है और वह है एक निबन्धकार का रूप, जो धीर है, गम्भीर है और समाज में घटित होने वाली घटनाओं के प्रति सजग भी है। राजन का दृष्टिकोण साफ एवं शीशे की तरह पारदर्शी है, उनकी सोच सकारात्मक है। अपने आत्मकथ्य में वे कहते हैं- ' जीवन की सुन्दरता इतनी सुन्दर वह आकर्षक नहीं है। सब कुछ हमारी आशाओं के अनुकूल नहीं होता। 'दिया तले अंधेरा' वाली कहावत हमारे जीवन में चरितार्थ होती है, तब जन्म लेती है लेखक की पीड़ा, दर्द, भावों में निराशा का प्रतिबिंब लिए वे शब्द जो अंधेरे में रोशनी बन दिल की गहराइयों को छू जाते हैं, जीवंतता के लिए आशा की किरण बन प्रस्फुटित होते हैं।'

 


इस पुस्तक में 29 आलेख हैं। 'पहले बर्तन का निर्माण करें' से शुरुआत करते हुए लेखक का कहना है- 'यह पूरी सृष्टि रचना का ही पर्याय है। यहां जो कुछ भी है मनुष्य से लेकर प्रकृति तक, वह एक विशिष्ट प्रयोजन से है। उसके होने में उसकी पूरी गरिमा और अर्थवत्ता निहित है।'

 

चांद, सूरज और बादल का दृष्टांत देते हुए उन्होंने यह संदेश दिया है कि हम दूसरों के साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करते हुए जियें। 'जीवन की समग्रता के बारे में सोचें' लेख में उन्होंने 'सुपर लर्निंग' की बात की है। उनके अनुसार इतनी शिक्षा के बावजूद आज समाज में हिंसा और अशांति बढ़ती ही जा रही है। सुपर लर्निंग मनुष्य की ऊर्जा का परिवर्तन कर उसे शक्तिशाली तो बना सकता है लेकिन उसे जीवन का आनंद नहीं दे सकता, अक्षरशः सत्य है। 

 

'नारी ने विकास के नए आयामों को छुआ है' आलेख में उन्होंने नारी के विकास के लिए चार तत्त्वों को अहम बताया है- शिक्षा, दृढ़ इच्छाशक्ति, स्वावलम्बन और स्वतंत्रता। इसके साथ ही वे लिखते हैं कि, नारी का असली सौंदर्य शरीर नहीं, शील है। नारी अस्मिता के ख़तरे से नारी को स्वयं ही बचाना होगा। इसके साथ ही वे भारतीय नारी को पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण से बचने की और वैभवशाली  वैदिक युग के उत्तम आदर्शों को ग्रहण करने की सीख देते हैं। वर्तमान दौर में रिश्तों की संजीदगी, सम्बन्धों की भावनात्मक ऊर्जा शनै-शनै अपना स्वरुप खोती जा रही है, लेखक इससे चिंतित है और इसलिए वह कहता है- 'रिश्तों को डिस्पोजल होने से बचाएं।'

 

आज़ के भौतिकवादी युग में माता-पिता बालक को इंसान बनाने की जगह मशीन बनाने में लगे हुए हैं, उन्हें संस्कारित करने के बजाय डिजिटल बना रहे हैं। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि संस्कारों का बीजारोपण सद्साहित्य से होता है न कि डिजिटल किताबों से। अगर राष्ट्र को सुदृढ़ बनाना है तो बच्चों को सबल बनाना होगा। वे ही हमारे भविष्य के कर्णधार हैं, कुछ इसी तरह के भाव पढ़ने को मिलते हैं- 'किताबें दिल और दिमाग को रोशनी देती है' आलेख में। 'व्यर्थ को दें अर्थ, बनेंगे समर्थ' लेख लेखक के अध्यात्मवादी चिंतन को पुष्ट करता प्रतीत होता है। इसमें वे व्यक्ति के चारित्रिक एवं नैतिक उत्थान की तथा मानवीय मूल्यों के प्रतिष्ठापन की बात करते हैं। इसका सार तत्त्व यही है- राष्ट्रहित सर्वोपरि है, पहले राष्ट्र फिर धर्म और मान्यताएं।

 

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती, व्यक्ति अपने जीवन का स्वयं वास्तुशिल्पी है, सफलता का मार्ग स्वयं ही प्रशस्त होता है तथा आगे बढ़ने के लिए पुरुषार्थ होना चाहिए, जैसे लेख व्यक्ति को सफलता के पथ पर अग्रसर होने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं। लेखक का मानना है कि बड़ी-बड़ी पुस्तकें पढ़कर एवं परीक्षाएं देकर व्यक्ति डिग्रियां तो बटोर सकता है लेकिन पंडित नहीं बन सकता। पंडित वह होता है, जो प्रेम की भाषा बोलता है और यही विचार 'सत्य हमारी सभ्यता और संस्कृति का सार है', में लेखक ने व्यक्त किए हैं। हम जीवन की समग्रता के बारे में सोचें, सद्गुणों से जीवन को महकाएं, स्वयं का जीवन निर्माण करें जैसे लेखों में लेखक की चिंता यही है कि भौतिकवाद की चकाचौंध को पाने में ही मनुष्य की सम्पूर्ण शारीरिक और मानसिक क्षमता व्यय हो रही है और उसका भावनात्मक पक्ष नगण्य होता जा रहा है। 'जीवन में जितनी सादगी और संतोष

सद्साहित्य ही ज्ञान, विद्या, संस्कार और विवेक का लोक-मंगल पथ है। सद्साहित्य मनुष्यता का बोध जगाने, सद्गुण वह सदाचार से युक्त, स्वार्थ भेद से मुक्त जीवन जीने की राह दिखाता है। साहित्य के पठन-पाठन की परम्परा के क्षरण की वजह से ही नैतिक एवं चारित्रिक मूल्य नष्ट होते जा रहे हैं। लेखक का मानना है कि हमें नई पीढ़ी में उन संस्कारों को पुनः रोपना है।

 

वर्तमान समय राष्ट्र की विषम परीक्षा का चल रहा है। सांप्रदायिक शक्तियां स्थान-स्थान पर कुटिल विषधर की भांति राष्ट्र को डरा रही हैं। 'जियो और जीने दो' का मंत्र हमारे जीवन से विस्मृत होता जा रहा है। एक ओर गगनचुंबी अट्टालिकाएं हैं तो दूसरी ओर घोर गरीबी और अभाव है। सामाजिक विषमता का उन्मूलन कर हर घर में ज्ञान, विवेक व संपन्नता का प्रकाश फैले, वही सच्ची दीपावली है। सारांशत: यही कहा जा सकता है कि लेखक ने जिस तरह सूत्र वाक्यों के जरिए अपनी बात को पाठकों के समक्ष रखा है, अगर उनमें से कुछेक को भी कोई अपने जीवन में उतारता है तो उसका जीना सार्थक हो सकता है और लेखक का लिखना भी। पुस्तक का कवर पृष्ठ जीवन-संघर्ष को दर्शाता हुआ प्रतीत हो रहा है, छपाई आकर्षक है। इस पुस्तक की खास बात यह है कि इसमें वर्तनी सम्बन्धी त्रुटियां बहुत कम है। इस आदर्शोन्मुख लेखन में लेखक कहां तक सफल हुए हैं, यह तो पाठक ही तय करेंगे।


 

*सरिता सुराणा,हैदराबाद

 

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