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कीचड़ से मोती चुगना सिखाएं बच्चों को



 *राजकुमार जैन राजन*

 

    बच्चों के मानसिक विकास के लिए साहित्य की अनिवार्यता स्वयं सिद्ध है। अब सवाल यह उठता है कि हम उन्हें कैसा साहित्य पढ़ने को दें? यह सवाल आज इस लिए अहम हो गया है, क्योंकि यह मीडिया के विस्फोट का युग है। बाजार, बुक स्टाल, आदि पत्र-पत्रिकाओं के विक्रय केंद्रों पर " बाल साहित्य " का अम्बार लगा हुआ है। दूसरी ओर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया बच्चों को कल्पनाओं की अंधेरी दुनिया में धकेल रहा है, जहाँ वास्तविक दुनिया का कोई सरोकार नहीं है। इंटरनेट, टी. वी. धारावाहिक साहित्य को अटपटे और चटपटे रूप में परोस रहे है। अधिकांश कॉमिक्स पात्र हर बच्चे को महानायक बनने की प्रेरणा दे रहे हैं। कल्पना करना मानव स्वभाव है, पर ऐसा भी क्या की हम हवा में जन्में और हवा में उड़ने लगें। यथार्थ का धरातल जानें कहाँ खो गया है। ये धारावाहिक बच्चों की मानसिकता  को विकृत बना रहे हैं। अभिभावक और शिक्षक आंख बंद किए हैं।

 

   सर्वे के अनुसार आज सत्तर प्रतिशत परिवारों में बच्चों की राय पर ही उपभोक्ता वस्तुएं क्रय की जाती हैं। जाहिर है कि बाजार के महारथी बच्चों को अपनी बाजार प्रतिस्पर्धा के लिए कारगर हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। यह बच्चों के लिए बहुत ही खतरनाक परिदृश्य है।

       वर्तमान में ऐसे संदर्भ जो हिंसक हो रहे हैं, ऐसे आचरण जो भ्रष्ट हो रहे हैं और ऐसे क्षण जो दिशाहीन हो रहे हैं - ऐसे वातावरण के बच्चों का भविष्य ऐसा न हो, सुखद, ईमानदार, शीलवान, संस्कारवान, उद्धेश्यपूर्ण हो और देश, समाज को प्रगतिपथ पर ले जाने वाला हो, इसके लिए हमें गम्भीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। आज का वातावरण सीधे - सीधे बच्चों और हमारे भविष्य पर आक्रमण कर रहा है। हमारे  नौनिहालों और युवकों को गुमराह कर रहा है। अभिभावकों,शिक्षकों और लेखकों की ऐसे माहौल में जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि हम अपने -अपने प्रयासों से बच्चों को एक स्वस्थ दिशा दें।

 

     शिशु के जन्म से लेकर बाल्यावस्था की समाप्ति तक बच्चों को रमाने वाला साहित्य ही "बाल साहित्य" है। बच्चों की साहित्यिक भूख जो उनके अंदर स्वाभाविक रूप से विद्यमान होती है, उसकी पूर्ति के लिए आवश्यक है कि उन्हें उनकी रुचि और जरूरत के अनुसार साहित्य दिया जा सके। 'बाल साहित्य'  से आशय बच्चों के लिए लिखे जाने वाले साहित्य से है। बाल साहित्य की विविध विधाएं हैं। कुल मिलाकर बालक और बाल साहित्य का रिश्ता पुरातन होते हुए भी निरन्तर संस्कार सिंचन का कार्य कर रहा है।

 

       बच्चों के निर्माण में शुरुआती दस साल मजबूत नींव की तरह होते हैं जिसमे संस्कार के बीज पड़ते हैं। बाल साहित्य इसमें बहुत मददगार है लेकिन इसकी पहुंच बहुत सीमित हैं। आज के व्यस्ततम दौर में ना तो माँ -बाप के पास समय है, ना ही समय निकालना चाहते हैं। 

       ऐसे माहौल में हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि बच्चों का विचार तंत्र समुचित तरीके से विकसित हो। उनमें कल्पनाओं के पंख लगें, उनमें सोचने -समझने ,अच्छे संस्कार पाने के लिए साहित्य पढ़ने की ललक पैदा हो।  जब घर मे ही पठनीयता के प्रति उदासीनता का रुख हो, सकारात्मक माहौल की कमी हो, तो बच्चों में अच्छी पुस्तकें, अच्छे साहित्य पढ़ने में रुचि कैसे पैदा होगी ? कितने ऐसे परिवार हैं जहां अच्छी सुरुचिपूर्ण किताबों की एक छोटी - सी लाइब्रेरी है ,अथवा जिससे बच्चों में पढ़ने के प्रति ललक पैदा हो, उनमें अच्छे गुणों के प्रादुर्भाव के लिए बाल साहित्य की पत्र - पत्रिकाएं मंगवाई जाती हो। 

जब तक अभिभावक स्वयं रुचि लेकर सकारात्मक माहौल निर्मित नहीं करेंगे,तब तक हम स्वयं ही बच्चों में  पठनीयता की कमी के लिए जिम्मेदार रहेंगे। इसके लिए हमें स्वयं अपने आप मे ही परिवर्तन करना होगा। बाल साहित्य पढ़ने की अभिरुचि बच्चों में छोटी आयु से ही पैदा की जानी चाहिए जिसके माध्यम से बच्चों में श्रेष्ठ संस्कार और शिष्टाचार जैसे गुण विकसित किये जा सकें। आने वाले कल में यही संस्कार बच्चों को ऊँचे मुकाम तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध होंगे।

आज हमारा समाज इतने क्लिष्ट ताने - बाने में लिपटा है कि इसमें कीचड़ भी है और मोती भी। आवश्यकता इस बात की है कि देश के कर्णधार इन नन्हे बच्चों को कीचड़ से मोती चुगना  सिखाया जाए ताकि हम अपने देश को सच्चे कर्णधार ,उजली आशा और सुनागरिक सौंप सकें।यह सब बच्चों को बाल साहित्य से जोड़े रखने पर ही सम्भव होगा।

 

*राजकुमार जैन राजन,चित्रा प्रकाशन,आकोला -312205 (चित्तौडगढ) राजस्थान मोबाइल - 9828219919


 





















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