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विभीषण के बिना दीपावली नहीं











*विष्णु बैरागी*
'दीपावली का पर्व उपलब्ध कराने के लिए किसे धन्यवाद दिया जाना चाहिए?' सबको प्रभु राम ही याद आएँगे। कुछ लोग रावण को श्रेय दे सकते हैं - उसने सीता हरण नहीं किया होता तो राम किसका वध करते? कैसे सीता सहित अयोध्या लौट पाते? वनवास से राम की सीता सहित वापसी पर ही तो अयोध्यावासियों ने दीपावली मनाई थी!


लेकिन मेरे मन में बार-बार विभीषण का नाम उभर रहा है। वही विभीषण जिन्हें कभी घर का भेदी तो कभी विश्वासघाती के रूप में उल्लेखित किया जाता है। कहा जाता है कि रावण इसलिए क्योंकि उसका भाई उसके साथ नहीं था। विभीषण को हमारा 'लोक' खलनायक के रूप में याद करता है। लेकिन मुझे लगता है कि यदि विभीषण नहीं होता तो राम अपनी भार्या सीता प्राप्त नहीं कर पाते। तब अकेले राम अयोध्या कैसे लौट पाते और कैसे अयोध्यावासी दीपावली मनाते? और इससे भी आगे की, इससे बहुत बड़ी बात - यदि राम अयोध्या नहीं लौटते तो जो रामराज्य आज हमारी चिरन्तन अभीप्सा बना हुआ है, वह रामराज कैसे स्थापित हो पाता?


चिन्तन की परतें ज्यों-ज्यों उघड़ रही हैं त्यों-त्यों मेरी धारणा मजबूत होती जा रही है - ये विभीषण ही थे जिन्होंने हमें रामराज  और दीपावली का महापर्व दिलवाया।


विभीषण, लंका के राजा रावण का सगा भाई छोटा भाई था। रावण के बाद लंका का राज उसे ही मिलना था। सुन्दरकाण्ड में खुद रावण ने उसे अपना उत्तराधिकारी माना है। रावण के अनुचर, राम के शिविर से जीवनदान प्राप्त कर लंका लौटे तो रावण ने उनसे विभीषण का हालचाल इस तरह पूछा था -


पुनि कहु खबरि विभीषन केरी। जाहि मृत्यु अई अति नेरी।।
करत राज लंका सठ त्यागी। होइहि जब कर कीट अभागी।।


जब तय था कि रावण के बाद लंका का राज्य विभीषण को ही मिलना था तो विभीषण को रावण की नाराजी मोल लेने की क्या जरूरत थी? विभीषण ने राज गद्दी हासिल करने के लिए षड़यन्त्र करना तो दूर, षड़यन्त्र का विचार भी नहीं किया। करते भी कैसे? किसके दम पर करते? वे तो लंका में खुद को 'दाँतो के बीच जबान' मानते थे -


सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी।।


तब फिर क्या बात रही कि विभीषण को 'घर का भेदी' बनने के 

लोकोपवाद का प्रतीक और पर्याय बनना पड़ा?


तुलसीदासजी ने विभीषण को 'नीति विभूषण' कहा है। विभीषण 'नीतिवान', नीति का पैमाना थे। मानस का सुन्दरकाण्ड केवल हनुमान की रामभक्ति और शौर्य की गाथा नहीं है। वह विभीषण के नीतिमान पुरुष होने का सुन्दर आख्यान भी है। विभीषण ने नीतिगत आचरण करते हुए ही वह सब किया जिसे आज हमारा लोक  अस्वीकार करता है।


विभीषण अपने सम्राट भाई का हित ही चाहते थे। वे चाहते थे कि उनका भाई जीवनपर्यन्त लंकापति बना रहे। इसीलिए उन्होंने लंका की चिन्ता की - लंका रहेगी तब ही तो उनका भाई लंकेश बना रहेगा! उनके चिन्तन-मनन में लंका और लंका का हित ही केन्द्र में रहा। उन्होंने 'राज-हित' की अपेक्षा 'राज्य-हित' या कहिए कि 'राष्ट्र-हित' को वरीयता दी। उन्होंने 'राजा' और 'राज' की अपेक्षा 'राज्य' की चिन्ता की। भाई की नहीं, भाई का राज बना रहे इसलिए राज्य की चिन्ता की। 'राष्ट्र प्रथम' की नीति तब ही सार्थक होती है जब 'राजा प्रथम' के मोह से मुक्त हुआ जाए।


'राष्ट्र प्रथम' की इसी भावना के अधीन विभीषण ने भरी सभा में अपने सगे भाई, लंकापति रावण को समझाने का साहस दिखाया। उन्होंने जब देखा कि उनका भाई नीति और मर्यादा भूल रहा है और पूरी सभा चापलूसी कर उनके भाई को कुमार्ग पर धकेल रही है तब उन्होंने सीधे परामर्श से पहले समझाया -


सुमति-कुमति सबके उर रहहिं। नाथ पुरान निगम अस कहहिं।।
जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना। जहाँ कुमति तहँ विपति निदाना।।


और इसके बाद उन्होंने वह साहस दिखाया जो कोई सच्चा राष्ट्र प्रेमी ही दिखा सकता था। चापलूस सभासदों से भरी सभा में उन्होंने रावण को कहा -


तव उर कुमति बसी विपरीता। हित-अनहित मानहु रिपु प्रीता।।


किन्तु चापलूसी और अहम् से ग्रस्त रावण को यह सलाह अनुकूल नहीं लगनी थी। उसने लात मार कर विभीषण को दूर कर दिया।


विभीषण ने जब देखा कि उनकी सही बातों को सुनने-मानने के बजाय उन्हें प्रताड़ित, अपमानित किया जा रहा है तो वे 'राम सत्यसंकल्प प्रभु, सभा कालबस तोरि' की सूचना देकर रामजी की शरण में चले गए। विभीषण के लंका त्याग पर गोस्वामीजी ने लिखा -


अस कहि चला विभीषण जबहिं। आयूहीन भये सब तबहिं।।
रावन जबहिं विभीषन त्यागा। भयउ विभव बिन तबहिं अभागा।।


नीतिवान विभीषण के जाते ही रावण और उसके सारे दरबारियों की आयु पूरी हो गई और रावण वैभवहीन तथा अभागा हो गया। यहाँ नाम अवश्य विभीषण और रावण के हैं किन्तु सन्देश सीधा और साफ है - आयुष्य, वैभव (राज वैभव) और सौभाग्य केवल नीतिगत आचरण से ही पाए जा सकते हैं। अनीति का वरण करने पर इनका नाश सुनिश्चित है।
विभीषण का यह नीतिवान स्वरूप केवल रावण तक ही सीमित नहीं रहा। पूछने पर उन्होंने प्रभु श्रीराम को भी नीति का पालन करने की सलाह दी। लंका पहुँचने के लिए समुद्र पार करना जरूरी था। प्रभु श्रीराम ने विभीषण से पूछा - क्या किया जाए? विभीषण ने कहा -


कह लंकेस सुनहु रघुनायक। कोटि सिंधु सोषक तव सायक।
जद्यपि तदपि नीति अस गाई। विनय करिअ सागर सन जाई।।


हे! राम, आप करोड़ों सागर सोख सकते हैं। किन्तु नीति तो यही कहती है कि आप सागर से विनयपूर्वक रास्ता माँगें। रामजी ने विभीषण से सहमति जताई। यह बात लक्ष्मण को रास नहीं आई। उन्होंने विनती करने को कायरता और आलस्य बताया तथा सागर को तुरन्त सोखने का आग्रह किया। रामजी ने अपने भाई की बात अनसुनी की और रावण के भाई की सुनी। नीति पर चलने का नतीजा पूरे जगत ने देखा।


याने विभीषण अर्थात् नीतिगत आचरण। रावण ने नीति मार्ग छोड़ा तो न केवल राजपाट से हाथ धोना पड़े, प्राण भी त्यागने पड़े। नीति पर चलने से राम ने अपनी अपहृत भार्या पाई और पहले अयोध्यापति और बाद में मर्यादा पुरुषोत्तम बने और विश्व को आदर्श रामराज्य दिया।


यह सब सोचते-सोचते मुझे विभीषण, रामराज्य की आधार शिला रखनेवाले नीति पुरुष अनुभव होते हैं। न राम को विभीषण मिलते और न ही रामायण पूरी होती, न दीपावली का शुभारम्भ होता और न ही रामराज मिलता।


आज हम सब रामराज की बाट जोह रहे हैं। प्रत्येक राजनीतिक दल हमें रामराज का सपना दिखाता है। हम हर बार भरोसा करते हैं और हर बार छले जाते हैं। हमारी दीपावली अब आत्माविहीन हो कर एक आयोजन (ईवेण्ट) में बदलती जा रही है। प्रकाश तो खूब हो रहा है लेकिन जिन्दगी के अंधेरे कम नहीं हो रहे। पटाखों का शोर हमारे कान फोड़ रहा है लेकिन आनन्द-उल्लास, सुख-सन्तोष छिटकते जा रहे हैं। न तो रामराज है न ही दीपावली।


विभीषण ही रामराज स्थापित करा सकते हैं और दीपावली मनवा सकते हैं। विभीषण एक व्यक्ति या एक शरीर नहीं है। विभीषण याने अपने राजा (राजा भी कौन? अपना सगा बड़ा भाई) को अनीति पर चलने से, भरी सभा में टोकने-रोकने का साहस। विभीषण याने जगत् नियन्ता को विनय करने की सलाह देने का साहस। विभीषण याने नीति पर चलने के लिए, सामने मिल रहा राज-पाट छोड़ने का साहस। विभीषण याने राजा नहीं, राष्ट्र प्रथम के विचार को सम्पूर्ण नैतिकता से आत्मा में उतारना।


विभीषण की तलाश बेकार है। अब तो आवश्यकता है, खुद विभीषण बनने की। नीति विभूषण विभीषण बनने की।

 

*विष्णु बैरागी, रतलाम



 













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