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सीमेंट-कंक्रिट के जंगल और बेहाल जीवन (लेख)






 *सुषमा व्यास 'राजनिधि'*


 इंसान का प्रथम लक्ष्य होता है एक बेहतर सुखद जीवन। इसके लिये वो कड़ी मेहनत करता है, शिक्षा-दिक्षा मन लगाकर पूर्ण करता है। चाहता है अच्छे पदों पर हो या बड़ा व्यापार करे।  जब सफलता मिलती है और वैभवपूर्ण जीवन तो खुश होता है।उच्चस्तरीय, वैभवपूर्ण, विलासित जीवन की होड़ आजकल हर इंसान में लगी है। बड़ा बंगला या सर्वसुविधायुक्त फ्लेट हो, शानदार चार पहीया वाहन या लक्झरियस कार, घर में हर सुविधा, महंगे फर्नीचर , बच्चो को महंगे स्कूलों में भेजने की होड़।इन सबमें हम इंसान समाज के प्रति अपने दायित्वों को दर किनार करने लगे हैं । समाज के प्रति अपने कर्तव्यों को भूलने लगे हैं। परिवार की सुख सुविधा और हित के आगे समाजहित गौण हो गया है। हमें बड़े बड़े मकान, बिल्ड़ींग, शाॅपिंग माॅल, सिनेमा हाॅल से लगाकर फाईवस्टार महंगे होटल, बड़े बड़े हाईवे, आसमान को नापते आधुनिक एरोप्लेन बनाना तो प्राथमिकता लगने लगी है परन्तु हम यः भूल गये कि एक अच्छे, सुखी और स्वस्थ जीवन के लिये प्रकृति का साथ भी बहुत आवश्यक है। जंगलों को सुरक्षित रखना, पेड़ पौधों और औषधियों को सहेजना होगा। जनसंख्या नहीं वृक्षों की संख्या बढाने का संकल्प जरूरी है। हर शहर, हर गांव से बाहर की सीमा पर जहां कभी जंगल हुआ करते थे वहां काॅलोनी और बस्ती बसती चली गयी है। जहां पहले एक मकान में चार भाईयों के परिवार रहा करते थे , संयुक्त परिवार प्रथा की जगह एकल परिवार ने ले ली। अब चार भाई चार मकानों में रहते हैं, बड़े बंगले में सिर्फ तीन या चार सदस्य और  परिणाम स्वरूप बिल्ड़िंगों और फ्लैट की भरमार।बढती जनसंख्या और सुखसुविधाओं की चाहत हरे भरे जंगलों को नष्ट करके क्रंकिट और सीमेंट में बदलती चली जा रही है।कितने जंगल खत्म हो गये, देश में कितने वृक्ष कट गये, अगर यहां आंकड़े दे भी दें तो क्या फायदा? पढकर फिर वही आंकड़ों में उलझते हुऐ हम उसे पुनः नजरअंदाज कर बैठेंगे , हमें भविष्य में हमारे आने वाली पीढी की कोई चिंता नहीं, हम उन्हें क्या देकर जायेंगे? बिगड़ते हालात और बंजर धरती से बदलता मौसम वायु परिवर्तन। बेहाल, बदहाल जीवन। जिसकी शुरूआत हम देख रहे हैं बिहार के पटना का हाल। मुंबई की बारिश, जरा सी बारिश में अस्तव्यस्त दिल्ली और पूना ही नहीं अन्य शहर और राज्य भी। मानव जाति अपनी महत्वाकांक्षा और सुविधा के लिये  प्रकृति से खिलवाड़ कर रहा है जिसका परिणाम है ये बदलता मौसम--  जो मानव की तरहा ही स्वच्छंदता और  मनमानी पर उतर आया है। बेमौसम बरसात, सर्दी ,गरमी , कभी बाढ तो कभी सूखे की मार झेलती धरती अपने जीवों को कब तक संरक्षण देगी जबकि उसकी ही छाती को उसके मानवपुत्र छलनी कर  रहे हैं। ऊंचे पहाड़ों और हिमालय की तराईयों को भी नहीं छोड़ा लालची मनुष्य ने। मनु- श्रद्धा और इला की संताने प्रकृति से पैदा हुई थी और उससे ही नष्ट होने की ओर अग्रसर है। सम्पूर्ण विश्व को इस दिशा में सोचना होगा कि हमें प्रकृति से प्यार करना है या उसका प्रकोप झेलना हैअगर अब नहीं चेतेंगें हम तो कब चेतेंगे|


*सुषमा व्यास 'राजनिधि', इंदौर







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