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साहित्य जगत के वट वृक्ष (व्यंग्य)






*राजीव नामदेव 'राना लिधौरी'*

कबीरदास जी ने सही कहा है कि 'बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर,पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर'। बडप्पन किसी के काम न आए तो किस काम का ? उस पर विड़म्बना यह कि खजूर को वट वृक्ष का भ्रम हो जाए फिर तो भगवान ही मालिक है। यूँ वटवृक्ष एक तरह से गुणों का सागर (भंड़ार) होता है पर एक दुगुर्ण या दोष उसके गुण-सागर को ठहरे हुए सड़ते पानी का संकुचित पोखर बना देता है। वह दोष है अपनी छाया (प्रभाव क्षेत्र) में अन्य पौधे को न पनपने देना। वटवृक्ष की तरह पीपल भी अपने बड़प्पन की कैद में घिर जाता है। शास्त्रों में भले ही पीपल को देव वृक्ष माना गया हो,आम लोगों में यही माना जाता है कि पीपल पर भूतों का डेरा होता है।
बरगद और पीपल जैसी नियति साहित्यिक जगत में भी देखने को मिलती है। साहित्यिक भूमि पर दूर-दूर तक अपनी जड़ें रोपे ये बरगद और पीपल बड़े होकर भी किसी के काम नहीं आते। न कोई इनके पास फटकता है, न इनकी लकड़ी रोटी सेंकने के काम आती है। इन पीपलों पर भूत दृष्टिकोण इस कदर हावी रहता है कि उन्हें वर्तमान के नए अंकुर मौसमी हरियाली नज़र आते हैं। ये बरगद-पीपल भूल जाते है कि पतझड़ के दौर में ये खुद ही उजड़े ठूँठ नज़र आते है। जबकि मौसमी हरियाली सबकी आँखों को भाती है। वैसे बरगदों और पीपल की संख्या थोड़ी ही होती है पर ये हर गाँव,हर कस्बे,हर नगर में दो-चार की संख्या
में मिल ही जाते हंै। इनकी स्वभावगत विशेषता होती है कि ये अपने नीचे घास भी नहीं जमने देते। अब यह बात दूसरी है कि इनके न चाहने पर भी कुछ हम जैसे बेशरम् के पौधे बिना खाद-पानी के भी इनके आस-पास ही हरियाते रहते है।
इन वट वृक्षों और पीपलों में एक विशेषता और भी होती है ये जहाँ एक बार जड़ें जमा लेते हैं उस इमारत (संस्था) को जर्जर बनाकर ही छोड़ते है क्योंकि इनका लक्ष्य अपनी जड़ें जमाना,अपना विस्तार करना होता है भले ही आश्रय स्थल खण्डहर में बदल जाए। अगर कोई संस्था इनकी प्रवृत्ति को भाँपकर इन्हें जड़े जमाने से पहले ही उखाड़ फेंके,तो ये उसके जानी दुश्मन बन
जाते हैं और समानान्तर गोष्ठी-संगोष्ठी कर अपने मन की भड़ास निकालते रहते हैं। ये अपनी अढ़ाई लेड़ी कौ कौंडो हमेशा अलग ही जलाए रहते हैं। इन्हें दूसरी संस्थाओं से जन्मजात बैर होता है क्योंकि ये कभी कभार खुद ही कोई संस्था अवैध संतान की तरह पैदा तो कर देते हैं,पर उसको पाल पोस नहीं पाते और यह संतान अनाथालय (सरकारी संरक्षण) और अनुदान न मिलने के कारण एक बंसत भी नहीं देख पाती हैं। 
*राजीव नामदेव 'राना लिधौरी',टीकमगढ़ (म.प्र.),मोबाइल-9893520965







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