*राजकुमार जैन राजन*
सृष्टि के आरंभ से ही प्रकाश और अंधकार का क्रम चलता रहा है। जब कभी भी यह सृष्टि शुरू हुई होगी तो सूर्य के प्रकाश और सूर्यास्त के अंधकार में डूबती उतराती रही होगी। मनुष्य ही नहीं , प्राणी मात्र को अंधेरा रास नहीं आता है । वह प्रकाश के लिए छटपटाता है। बड़ा विचित्र लगता है प्रकृति का यह खेल, जो मानव सभ्यता की यात्रा का आधार बन गया। आधार इस लिए कि उसने शुरू से ही अंधेरे से प्रकाश की ओर यात्रा का सबक सिखा।
भारत के समस्त धर्म ग्रन्थ, सामाजिक, सांस्कृतिक परम्पराएं प्रकाश को ही समर्पित रहे हैं। भारतीय जनमानस की सोच व संस्कारों से बंधे रहने के कारण उनमें एक विश्वास की भावना है - ' तमसो मा ज्योतिर्गमय' तो कभी 'अप्प दीपो भवः'। दीपक मनुष्य की प्रकाश चेतना का ही प्रतीक है। इसी कारण हर कार्य के शुभारंभ, उत्सव की खुशी के समय दीप जलाया जाता है।
हमारी लोक संस्कृति में तीज -त्योहारों के अवसर पर लोग अपने घरों को सजाने- संवारने के कार्य करते हैं। खूब आतिशबाजी व दियों की रोशनी की जाती है। हर बार हर एक ही कोशिश होती है कि अंधेरा जितना गहरा हो, उजाला उतना ही ज्यादा फैले। इतना कि अमावस्या की घनघोर काली रात पूर्णिमा के उजास को मात देने लगे। पर हर साल सजने वाले ये दीये क्या कोई संदेश भी देते हैं ? या फिर उजाला फैलाना भर इनका मकसद रहता है? बाहरी अंधकार से लड़ने वाले ये दीप, यह उजाला दिलों के भीतर भी कही भर पाते हैं क्या?
क्या है जिसके प्रतीक हैं ये दीपक, जो सालों साल- जलाए जाते रहे हैं और जलाए जाते रहेंगे। राम के अयोध्या आगमन की प्रसन्नता, भगवान महावीर के निर्वाण का अवसर और नए अन्न के स्वागत के उल्लास के प्रतीक ये दीये क्या कह रहे हैं और क्या हम सुन रहे हैं वह, जो ये नन्हे दिए हमें कहते रहते हैं।
दीप से दीप जलता है और प्रकाश के वृत बढ़ते जाते हैं। मानव मन भी दीपक का प्रतीक है। मन से मन मिलते है तो प्रकाश के, आनन्द के, सद्भावना के, मानवीय संवेदना के अनेका अनेक दीप जल उठते हैं। मनुष्य के मन प्राण नई ऊर्जा से भर उठते हैं। आलोकित हो जाते हैं। इस लिए कहा जाता है कि दीप से दीप जलाते चलो। अर्थात हमें अपनी सद आकांक्षाओं से, सद्भावों से मानव मात्र के जीवन को प्रकाशमान बनाने का काम निरन्तर करना चाहिए।
संभवतः हमारे देश मे इसी कारण अनेक पर्व, त्योहार, अनुष्ठान हैं जिनमे दीपक की लौ या अग्नि की ज्वाला का होना अनिवार्य है। दीपक की लौ या अग्नि की ज्वाला का होना। दीपक की लौ हमे निरन्तरता का, सतत सक्रिय रहने का बोध भी देती है। हर साल दिवाली के त्यौहार पर उमंग व तरंग मन में हिलोरें मारती है। यह त्यौहार एक अवसर है कि हम ध्यान दें कि कहीं रिश्तों की ऊष्मा ठंडी तो नही पड़ रही है, मित्रता में दूरियां तो नहीं बढ़ रही है। दीपावली पर हम जो दीप प्रज्वलित करते हैं उसकी रोशनी सबके लिए होती है। सबको उजाले बांटने के लिए होती है। आइए, इस पर्व को सार्थक बनाएं कई तरह से उजाले बांट कर। यह उजाला देह दान ,नेत्र दान, रक्तदान का हो सकता है जो किसी का जीवन रौशन कर सकता है, यह उजाला पर्यावरण संरक्षण का भी हो सकता है जो मानव जीवन को चैन से जीने देने में सहायक होगा। यह उजाला जरूतमन्द लोंगो की छोटी छोटी मदद का हो सकता है तो यह उजला पशु -पक्षियों व पर्यावरण के संरक्षण का भी हो सकता है। जो आपको प्रसन्नता व सकूँन देगा।
हर वर्ष हम नवरात्रि, दशहरा,, दिवाली,, ओणम, बिहू आदि को उत्सव के रूप में मनाते हैं। अनेक कथा - किंवदन्तियाँ उनसे जुड़ी हुई है जो हमारी जातीय चेतना की मधुरतम स्मृतियां है जिनसे हमें निरन्तर प्रेरणा मिलती है। जीवन की उत्सव धर्मिता और आनन्द की निरंतरता को दर्शाती है, मन के अंधेरे को दूर करती है। मानवीय ऊष्मा का संचार करती है। जैसे एक दीप से अनेक दीप जलाए जा सकते हैं, वैसे ही ये उत्सव, ये अनुष्ठान, नए पर्व -त्यौहार, परम्पराएं हमारे दिलों को एक दूसरे से जोड़ने का कार्य करते हैं।इसी में इनकी महत्ता और सार्थकता निहित है। आओ, हम सब मिलकर आशा का, विश्वास का, राष्ट्र प्रेम का एक दिया जलाएं।
*राजकुमार जैन राजन,चित्रा प्रकाशन,आकोला,(चित्तौड़गढ़),राजस्थान,मो.9828219919, ईमेल: rajkumarjainrajan@gmail.com
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