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‘बापू कथा’ के अंश




*विष्णु बैरागी*
गाँधी अपने जीते जी ही सर्वकालिक और प्रासंगिक बन गए थे। लेकिन यह हैसियत उन्हें यूँ ही नहीं मिली। यह हैसियत पाना निश्चय ही उनका लक्ष्य कभी नहीं रहा। ऐसा उन्होंने कभी चाहा भी नहीं। किन्तु उनके जीवन में घटी एक के बाद एक घटनाओं ने उन्हें अपने आप ही इस दशा में ला खड़ा किया। गाँधी की इस यात्रा को लेखों, उद्धरणों, व्याख्याओं के बजाय इन घटनाओं के जरिए ही बेहतर ढंग से जाना और समझा जा सकता है।


बैरिस्टर की डिग्री हासिल कर गाँधी भारत लौटे तो सही किन्तु वकालात में कामयाब नहीं हो पाए। वे निराश ही हुए। तभी उन्हें दक्षिण अफ्रीका से दादा अब्दुल्ला की ओर से मुकदमा लड़ने का प्रस्ताव मिला जिसके लिए 105 पौण्ड वार्षिक का पारिश्रमिक मिलना था। यह मुकदमा अब्दुल्ला भाई और उनके चचेरे भाई के बीच, लगभग 40 हजार पौण्ड की सम्पत्ति को लेकर चल रहा था। मोहनदास ने यह प्रस्ताव मान लिया।


अब्दुल्ला भाई की पैरवी करने के लिए वे ठेठ भारतीय वेशभूषा में कोर्ट में प्रस्तुत हुए तो उन्हें बाहर निकाल दिया गया। 'अनवाण्टेड गेस्ट' शीर्षक से एक अखबार ने समाचार तो छापा लेकिन घटना के तथ्यों में हेर-फेर था। बापू ने वास्तविकता बताते हुए सम्पादक के नाम पत्र लिखा। वह पत्र छपा भी। यही पत्र, बापू की पत्रकारिता की शुरुआत बना। दक्षिण अफ्रीका प्रवास में बापू ने जितने पत्र अखबारों के सम्पादकों को लिखे, उनमें से एक भी पत्र अप्रकाशित नहीं रहा-सबके सब छपे और कई पत्र तो ऐसे थे जिन्हें आधार बना कर सम्पादकों ने सम्पादकीय-अग्रलेख लिखे।


अब्दुल्ला भाई के मुकदमे के दौरान बापू ने अनुभव किया कि मुकदमे में वकील की जेब भारी होती जाती है और पक्षकार की जेब हलकी। सो उन्होंने अब्दुला भाई को समझौते की सलाह दी और मध्यस्थ की जिम्मेदारी खुद निभाई। उन्होंने अदालत के बाहर समझौता कराया जिसमें अब्दुल्ला भाई के सारे दावे ज्यों के त्यों स्वीकार कर लिए गए। लेकिन बापू ने अनुभव किया कि इतनी बड़ी रकम एक मुश्त चुकाना, किसी भी व्यापारी को दिवालिया बना देगा। सो उन्होंने अब्दुल्ला भाई को यह रकम लम्बी किश्तों में वसूल करने के लिए राजी किया। इस घटना ने अब्दुल्ला भाई पर गहरा असर किया और 'वकील गाँधी' उनके लिये 'भाई गाँधी' बन गया।


बापू से जब पूछा गया कि उनके जीवन का सर्वाधिक सृजनात्मक क्षण कौन सा था तो बापू ने कहा था - 'जब मुझे मेरे सामान सहित रेल के डिब्बे से बाहर फेंका गया।' इस दुर्घटना की पहली प्रतिक्रिया तो वापस वतन लौटने की रही लेकिन मोहनदास के मन में अगला विचार आया - 'मैं तो चला जाऊँगा लेकिन जो हिन्दुस्तानी पहले से यहाँ रह रहे हैं और जो हिन्दुस्तानी मेरे जाने के बाद यहाँ आएँगे उनका क्या होगा?' इस विचार ने ही गाँधी को, 'व्यक्ति से समष्टि' बनाया।


सामान सहित रेल से फेंके जाने के अगले ही दिन जब वे बग्गी से जा रहे थे तो कोचवान द्वारा उनके साथ किए जा रहे अपमानजनक व्यवहार के दौरान एक गोरे ने कोचवान को टोका और गाँधी की बात का समर्थन किया । इस घटना ने गाँधी को वह विचार दिया जो आज के भारत की सबसे बड़ी समस्या का निदान है लेकिन जिस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा। उन्होंने देखा कि एक गोरे ने उन्हें रेल से उतार फेंका और दूसरे ने बग्गी में उन्हें उनका यथोचित स्थान दिलाया। याने - 'सब गोरे एक जैसे नहीं हैं।' अर्थात् एक आदमी की गलती को पूरी कौम की गलती नहीं मानी जानी चाहिए।


गाँधी ने साधारणीकरण को आजीवन अस्वीकार किया। साधारणीकरण सदैव समस्याएँ खड़ी करता है। जिस देश को तरक्की करनी है उसे साधारणीकरण से कड़ा परहेज करना ही होगा।


इन घटनाओं ने गाँधी का जीवन ऐसे बदला जिसे संस्कृत में 'द्विज बन जाना' कहा गया है। जिस प्रकार अण्डा, फूटने के बाद अण्डा नहीं रह जाता, चूजा बन जाता है, उसी प्रकार गाँधी का जीवन बदल गया। उन्होंने गोरों के व्यवहार को रोग नहीं माना। उन्होंने अनुभव किया कि रंग भेद इस रोग की जड़ है और उन्हें व्यक्ति से नहीं बल्कि वृत्ति से तथा उससे भी आगे बढ़कर व्यवस्था से संघर्ष करना होगा।


पहली घटना से गाँधी घबराए अवश्य, सम्भवतः अंशतः विचलित भी हुए हों लेकिन उन्होंने भाषा की विनम्रता और अपने विश्वास के प्रति दृढ़ता को बिलकुल नहीं छोड़ा और यहीं उन्होंने अनुभव किया कि सत्याग्रह और कायरता साथ-साथ नहीं चल सकते।


'समष्टि' की चिन्ता करते हुए उन्होंने अब्दुल्ला भाई की सहायता से प्रिटोरिया में भारतीयों की सभा बुलाई थी, उसमें दिया गया भाषण, गाँधी का पहला भाषण था। इस भाषण में उन्होंने अपने साथ हुए व्यवहार का जिक्र भी नहीं किया और एक भी कड़वा शब्द नहीं कहा। उन्होंने सबकी समस्याओं पर बात की और जब भेद-भाव के विरुद्ध पहल पर सहमति हुई तो उन्होंने कहा - पहले हमें तैयार होना पड़ेगा। पहले अपने दोष दूर करने होंगे। हम घर में ईमानदारी वापरें और व्यापार में बेईमानी - इससे हमारी और हमारी बात की इज्जत नहीं होती। घर में और बाहर में एक बात कहने के लिए हिन्दुस्तानियों की प्रतिष्ठा बनानी पड़ेगी। हम सबको हिन्दुस्तानी बनना पड़ेगा और इसके लिए जाति, भाषा, धर्म के आग्रह छोड़ने पड़ेंगे।यह बात गाँधी ने 1938 में कही थी तब वे 'भाई गाँधी' थे, 'महात्मा' नहीं बने थे ।


'भारत का असफल बैरिस्टर मोहनदास' दक्षिण अफ्रीका का न केवल सफल वकील बना अपितु उसने वकालात के पेशे को जो विश्वसनीयता और इज्जत दिलाई उसकी मिसाल दुनिया में शायद ही कहीं मिले। उनकी सफलता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उनकी मासिक आमदनी पाँच हजार पौण्ड तक होने लगी थी और गोरे वकील उनके जूनीयर के रूप में काम करते थे। लेकिन उन्होंने झूठे मुकदमे कभी नहीं लिए। चलते मुकदमों के दौरान उन्हें जैसे ही मालूम हुआ कि उनके मुवक्किल ने उनसे झूठ बोला है तो उन्होंने वे मुकदमे, न्यायाधीश से क्षमा याचना करते हुए बीच में ही छोड़ दिए ।
वकालात के पेश के प्रति गाँधी की ईमानदारी और निष्ठा का असर यह हुआ कि एक मुकदमे में, गाँधीजी के प्रतिपक्षी वकील ने जिरह करते-करते जिस तरह से सवाल पूछने शुरु किए वह देख कर जज ने उस वकील को टोका और कहा - 'यदि आप गाँधी की कही बातों को झूठा साबित करने की कोशिश कर रहे हैं तो ऐसा मत कीजिए क्यों कि कोई भी आपकी बात नहीं मानेगा।'


(नारायण भाई देसाई ने 09 अगस्त 2008 से 13 अगस्त 2008 तक इन्दौर में 'बापू कथा' बाँची थी। वरिष्ठ पत्रकार और लेखक श्री विष्णु बैरागी, रतलाम ने उनके व्यख्यानों अपने ब्लॉग पर नियमित रूप से प्रकाशित किया था। यह सामग्री उन्हीं पोस्टों से ली गई है।)
*विष्णु बैरागी, रतलाम मो. 9827061799



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