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शिक्षा से हो पूर्णता की प्राप्ति(लेख)


*विवेक मित्तल*

आजादी के बाद से भारत में विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान करने हेतु जिस शिक्षा नीति को अपना गया उसके कारण सुदृढ़ गुरुकुल परम्परा विलुप्त हो गई। वर्तमान समय की स्कूली शिक्षण व्यवस्था को कोचिंग सेन्टर्स के बढ़ते प्रभाव के कारण खतरा उत्पन्न हो रहा है। विद्यालय का अर्थ और स्वरूप ही परिवर्तित होता नजर आ रहा है। शिक्षा व्यवस्था में निरन्तर हो रही गिरावट के लिए हम सभी समान रूप से जिम्मेदार हैं। बच्चों के भविष्य को संवारने का, नई पौध को शिक्षित-संस्कारित-स्वावलम्बी बनाने का बीड़ा समाज के प्रत्येक वर्ग को उठाना होगा। हमें हमारी प्राचीन परम्पराओं का संवर्द्धन करना होगा, उसको पोषित करना होगा। आइये शिक्षक दिवस पर हम सभी कृत संकल्पित होकर शिक्षा और शिक्षार्थी के उन्नयन के लिए कार्य करने की शपथ लें तभी सार्थक होगा 'शिक्षक दिवस' आयोजित करना। शिक्षा और शिक्षक को लेकर विभिन्न विद्वानों के मत इस प्रकार हैं-
डॉ. एस. राधाकृष्णन के अनुसार, “शिक्षक वह नहीं जो छात्र के दिमाग में तथ्यों को जबरन ठूंसे, बल्कि वास्तविक शिक्षक तो वह है जो उसे आने वाले कल की चुनौतियों के लिए तैयार करें।“
स्वामी संवित् सोमगिरिजी महाराज के अनुसार, ”शिक्षा को सत्ता के अंकुश से मुक्त होना चाहिए, जब तक सरकार व्यक्ति को वेतनभोगी बनाकर शिक्षण कार्य करवाती रहेंगी, शिक्षा और शिक्षार्थी का उन्नयन नहीं होगा।“
महर्षि अरविन्द के अनुसार, “शिक्षक कोई प्रशिक्षक नहीं है बल्कि वह तो सहायक एवं पथ प्रदर्शक है। वह केवल ज्ञान ही नहीं देता अपितु ज्ञान के स्त्रोत तथा ज्ञान प्राप्त करने की दिशा भी दिखाता है।



शिक्षा में व्यावसायिकता - एक चुनौती
वर्तमान समय में हमारी शिक्षा पद्धति ने विशुद्ध व्यावसायिक रूप अपना लिया है। शिक्षा विद्यार्थियों के जीवन में सर्वांगीण विकास की यात्रा न होकर मात्र ग्रेड/प्रतिशत/मैरिट तक सिमट कर रह गयी है। आदर्श और संस्कार विहीन शिक्षा पद्धति से सुदृढ़-समृद्ध राष्ट्र के लिये मानसिक रूप से स्वस्थ तथा योग्य नागरिक तैयार नहीं किये जा सकते। ऐसी शिक्षा पद्धति का कोई मोल नहीं जिसमें अर्थ की प्रधानता हो, जो बालकों को अपनी परम्परा-संस्कार-संस्कृति से दूर रखे और शिक्षक, माता-पिता, बड़े-बुजुर्गों के प्रति आदर भाव का प्रकटन न कर सके।



दायित्व बोध का अभाव
शिक्षक वही सफल माना जाता है जो अपने शिक्षण में नवाचार को अपनाते हुए बच्चों का मार्गदर्शन करे। शिक्षा के साथ-साथ श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों को विद्यार्थियों में प्रवाहित करने वाले शिक्षक वर्तमान समय में भी मौजूद हैं। लेकिन जब यह शिक्षक अपने दायित्वों का निर्वहन करते हुए शैक्षणिक कार्य का सम्पादन पूर्ण निष्ठा और लगन से करता है तो उसे लीक से हट कर चलने के कारण अपनों से ही बाधाओं का सामना करना पड़ता है। उनको कुटिल राजनीति का शिकार बनना पड़ता है, साथियों से व्यंग्य बाण सुनने पड़ते हैं, पग-पग पर उनको हतोत्साहित और नीचा दिखाने का प्रयास किया जाता है। उचित दायित्व बोध के अभाव में नकारात्मक प्रवृत्ति वाले लोग अपना ध्यान शिक्षण कार्य में न लगाकर गुटबाजी करने, विद्यार्थियों को उकसाने तथा उनको मोहरा बनाकर साजिशें रचने में व्यतीत करते हैं। ऐसा करने वालों ने शिक्षा-शिक्षक-विद्यार्थी के महत्व को गौण कर दिया गया है, वेतन पाना उनकी प्राथमिकता बन गई है।



अनुशासन बन्धन नहीं है
शिक्षक का कार्य है बालक को शिक्षा के साथ अनुशासनप्रिय बनाना ताकि वह शिक्षा उपरान्त अपने कार्यक्षेत्र में आदर्श नागरिक बनकर अपनी सेवाएँ प्रदान करने के साथ-साथ पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्वों का निर्वहन भी उचित प्रकार से कर सके। यह तभी सम्भव होगा जब हम जगत के नियमों का पालन करते हुए शिक्षा ग्रहण करेंगे। स्कूल में विद्यार्जन के साथ अनुशासन में रहते हुए नियमों का पालन करना बन्धन नहीं है। यह तो जीवन पथ पर अग्रसर होते समय विपरीत परिस्थितियों से सामना करने का पूर्वाभ्यास है। श्रेष्ठता को प्राप्त करने के लिए अनुशासित रहना आवश्यक है।



विद्यार्थियों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति
प्रतिस्पर्धा के युग में बच्चों का बचपन दम तोड़ रहा है। अभिभावकों की अति महत्वकांक्षा  ने बालक के शरीर और दिमाग को मशीन बना कर रख दिया है। दस में से दस ग्रेड व सौ में से सौ अंक लाना ही जीवन का अभिन्न लक्ष्य बन गया है। आज का विद्यार्थी कम उम्र से ही कुण्ठाग्रस्त, तनावग्रस्त, मानसिक अवसाद, असफलता का भय जैसे चक्रव्यूह में घिर कर रह गया है। इसके दुष्परिणाम परिवार और समाज को लगातार देखने को मिल रहे हैं आत्महत्या के रूप में। यह अत्यन्त ही चिन्ताजनक विषय है हम सभी को गम्भीरता से इस ओर सोचने की तथा समस्या के निराकरण के लिए प्रयास करने की आवश्यकता है। मेरा व्यक्तिगत मत है कि ऐसी शिक्षा पद्धति का कोई मोल नहीं जो मार्क्सशीट में चार-चांद लगवाये लेकिन जीवन में जब संघर्ष के पल आयें तो नौका मझधार में ही डूब जाये। मेरा आग्रह है कि अंक प्राप्ति की दौड़ में शामिल मत होइए, अगर आपने ज्ञान प्राप्त कर लिया तो अंक पीछा करते हुए अपने आप अंक मार्क्सशीट में चार चांद लगा देंगे। अच्छे अंक एक जीवन यापन हेतु नौकरी दिला सकते हैं लेकिन लम्बे सांसारिक जीवन में आने वाली विभिन्न चुनौतियों का सामना हम अपने ज्ञान एवं योग्यात के बल पर ही कर सकते हैं। अतः शिक्षित होने के साथ-साथ गुणी भी बनें। तनाव मुक्त होकर शिक्षा ग्रहण करें।


शिक्षा से हो पूर्णता की प्राप्ति
बालकों को अच्छी और गुणवत्त परक शिक्षा प्रदान करने के लिए बड़े-बड़े आधुनिक सुविधाओं से युक्त भवन, साफ सुथरे सज्जायुक्त कक्षाकक्ष व फर्नीचर होना ही पर्याप्त नहीं है। शैक्षणिक विकास के लिए योग्य एवं गुणी शिक्षक का भी होना आवश्यक है। प्राचीन शिक्षा पद्धति में बालक के भीतर शैक्षणिक विकास के साथ-साथ आत्मविश्वास, विनम्रता, धैर्य, सहनशीलता, निडरता जैसे गुणों का विकास भी किया जाता था ताकि विपरीत परिस्थितियों में मानसिक संतुलन बनाये रखते हुए श्रेष्ठ निर्णय के द्वारा हर बाधा को पार किया जा सके। बल, बुद्धि विद्या देवे मोही, हरले सभी विकार, ऐसी होती है शिक्षा जिसके माध्यम से शिक्षक विद्यार्थी का परिचय उसके स्वयं के साथ करवाता है ताकि वह अपने अन्दर छिपी प्रतिभा को पहचान कर अपनी दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त कर सके। ज्ञान और योग्यता के बल पर विपरीत परिस्थितियों में स्थिर रह कर मुकाबला करने की कला सीखाती है शिक्षा, और यही कला उन्हें पूर्णता की ओर अग्रसर करती है।
इतिहास बन चुकी गौरवशाली व समृद्ध शिक्षण परम्परा की दुहाई कब तक देते रहेंगे हम। हर काम को करने में राजनीति, स्वार्थ सिद्धि की भावना को त्याग कर इसको पुनर्जीवित करने, राष्ट्र की चेतना में प्रवाहित करने तथा विद्यार्थियों को शिक्षा के सही मायने सीखाने के लिए नूतन तथा प्राचीन शिक्षा पद्धति का संगम करना ही होगा। करने भर से नहीं होने वाला परिवर्तन। इसके लिए सरकार को, शिक्षा नीति निर्धारकों को, शिक्षकों को, अभिभावकों को, शाला संचालकों को, संस्था प्रधानों को, सामाजिक कार्यकर्ताओं को संकल्पित होकर कार्य करना होगा तभी शिक्षा-शिक्षक-शिक्षार्थी का उन्नयन होगा। शिक्षक दिवस की आप सभी को पुनः मंगलकामनाएँ।
जय हिन्द! वन्देमातरम्!!



*विवेक मित्तल,बीकानेर,मो. 9414309014


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