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रियलिटी शोज़ और बाल मनोविज्ञान(लेख)


-अनुजीत इकबाल,लखनऊ


वर्तमान समय में हम सारे टीवी चैनल्स पर बच्चों के रियलिटी शोज़ देख रहे हैं। जहां हमारे बचपन में डीडी चैनल और डीडी मेट्रो हुआ करते थे, वहीं अब अनगिनत चैनल अस्तित्व में आ गए हैं। इन चैनल्स के विस्तार की क्रिया में कार्यक्रमों के विषयात्मक पहलुओं पर बहुत जटिल एवं क्रांतिकारी प्रयोग हुए हैं। सुपर-डांसर, सारेगामापा लिटिल चैंप्स, डी•आई•डी, इंडियास बेस्ट ड्रामेबाज इत्यादि नाना प्रकार के कार्यक्रम इस वक्त चल रहे हैं। शायद ही कोई दिन ऐसा हो जब हम बच्चों को नाचते, गाते और तरह-तरह के करतब दिखाते ना देखते हों। कुछ लोगों का मत है कि उबाऊ और पारंपरिक टीवी सीरियल्स से हमें इन शोज़ ने मुक्ति दिलाई है, इन में नयापन है। लेकिन क्या वास्तव में इस तरह के रियलिटी या टैलेंट हंट शोज़ हमें कोई फायदा कर रहे हैं?


हम सब यह जानते हैं कि इस तरह के ज्यादातर शोज़ विदेशियों की नकल भर हैं। इनकी पारदर्शिता पर समय-समय पर प्रश्न उठते आए हैं। प्रतिभा को आगे बढ़ाना बुरी बात नहीं है लेकिन अपने व्यवसायिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बच्चों का प्रयोग करना कहां तक सही है?


हम सब ने यदा-कदा इन मंचों पर बच्चों के साथ होने वाली अभद्रता और आक्रामकता देखी है। मेरे हिसाब से ऐसे शोज़ बच्चों से उनका बचपन छीन रहे हैं। बड़ों की तरह वस्त्र और मेकअप करवाना, द्विअर्थी संवाद, घर परिवार की आर्थिक व सामाजिक समस्याओं को बच्चों के मुंह से कहलवाना कहां तक उचित है?


यह बात केवल उन बच्चों तक सीमित नहीं है जो टीवी में जाकर अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं। बल्कि इसका दुष्प्रभाव घर में बैठे बच्चों पर भी हो रहा है। आजकल के अति महत्वाकांक्षी माता-पिता जाने अनजाने अपने बच्चों की तुलना उन बच्चों से करना शुरू कर देते हैं, जो कि बाल मन पर बहुत ही प्रतिकूल प्रभाव डालती है। बच्चा कुंठा और अवसाद का शिकार हो जाता है। अपने खुद के बच्चे पर इतनी मानसिक हिंसा?


आधुनिक माता-पिता का कार्य पुराने लोगों से थोड़ा कठिन है। उनको बच्चों की शिक्षा और अन्य गतिविधियों में संतुलन बनाए रखना पड़ता है। वर्तमान समय के बच्चों को बड़ों के सपनों, आदेशों और इच्छाओं का अंधानुकरण करना पड़ता है। बाल सुलभ लीलाएं इन शोज़ की वजह से खत्म हो रहीं हैं। इस तरह के कार्यक्रमों में कितनी सामग्री सच होती है, कोई नहीं जानता। लेकिन एक स्टडी के मुताबिक 60% से अधिक झूठ ही परोसा जाता है। अधिकांश माता-पिता इनके भावनात्मक नाटक और सनसनीखेज रोमांच की पकड़ में आ जाते हैं। इन शोज़ असल उद्देश्य कहीं खो जाता है।


भारतीय परिदृश्य में यह ठीक नहीं है। हकीकत से अनभिज्ञ दर्शक घटनाओं को वास्तविक समझते हैं और इसके नतीजे घातक सिद्ध होते हैं।


बॉलीवुड के मशहूर निर्देशक शुजीत सरकार ने इन शोज़ पर सवाल उठाए हैं लेकिन इंडस्ट्री के कुछ लोग उनसे असहमत दिखे। शुजीत ने ट्वीट कर निवेदन किया था कि तत्काल बच्चों से जुड़े सभी शोज़ बैन कर देने चाहिएं। यह वास्तव में उनकी भावना और मासूमियत को नष्ट कर रहे हैं। प्राइवेट चैनल टीआरपी के चक्कर में नैतिकता को ताक पर रख रहे हैं।


'तारे ज़मीन पर' फिल्म के निर्देशक अमोल गुप्ते निशाना साधते हुए कहते हैं कि ऐसे शोज़ बच्चों को स्कूल से दूर रखते हैं, जिसकी वजह से बच्चे अपनी मासूमियत खो देते हैं। साथ ही, सामान्य जीवन में वापस आने और मित्रों के साथ घुलने मिलने में उनको ढेरों परेशानियां आती हैं।


बचपन अपेक्षाकृत अधिक पुलकित, उमंगों से भरा और उत्साही होता है लेकिन विषय वस्तु के अनुसार प्रतिभागियों के निजी जीवन को दर्शकों के सामने रखकर, बच्चों को सहानुभूति की भिक्षा मांगना सिखाने में भी इन शोज़ का हाथ है। गायन और नृत्य के ऐसे कार्यक्रमों में बुरे प्रदर्शन पर निर्णायक मंडल कड़ी डांट भी सार्वजनिक मंच पर लगा देते हैं। इसका कुप्रभाव बाल मन पर पड़ता है।


मनोवैज्ञानिक पुलकित शर्मा के अनुसार सार्वजनिक मंच पर तुलना किए जाना और हार जाना बच्चे के मन पर अमित छाप छोड़ सकता है। बच्चों के लिए जीतने और हारने की पूरी अवधारणा बहुत ही भावुक होती है।


संक्षेप में, माता पिता को ही ध्यान देना चाहिए कि हर बच्चा विशिष्ट गुण लेकर पैदा होता है। बच्चे पर अपनी महत्वाकांक्षा लादकर उसका बचपन छीनना एक तरह का अपराध ही है। प्रतिभा-खोज के नाम पर जो कौतुकागार चल रहा है तत्काल बंद होना चाहिए।


-अनुजीत इकबाल,लखनऊ


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