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राजनीति में परिवारवाद (कविता)


*विवेक जगताप*


नेताजी आज बड़े खामोश थे,
उड़े-उड़े से उनके होश थे,
हमने पूछा, चेहरे की हवाईयाँ क्यों उड़ी हुई हैं,
गुस्से से भौहें क्यों चढ़ी हुई है,
नेताजी ने कुछ देर हमें देखा,
और बोला, क्यों जानकर भी अनजान बन रहे हो,
मारकर तानें मुझे, इंसान से शैतान बन रहे हो,
मैंने कहा, नहीं हुजूर, हम आपका किरदार
कैसे निभा सकते हैं,
शाल में लपेटकर सुआ कैसे चुभा सकते हैं,
बताईए, आपको क्या मलाल है,
जो आज आपका ऐसा बूरा हाल है,
नेताजी बोले, इस चुनाव में अपनी पार्टी से सिर्फ अपने साले के लिए टिकट मांगा था,
वो भी नहीं मिला,
पार्टी ने इतने सालों की वफादारी का ये दिया है सिला,
मैंने समझाया, चलता है नेताजी,
चढ़ता सूरज भी एक दिन ढलता है नेताजी,
पत्नी तो आपकी पहले से सदस्य है संसद की,
बहु को भी मंत्रिमण्डल में जगह मिली है पसन्द की,
आपका पुत्र संगठन में शीर्ष पद पर काबिज है,
सभी की किस्मत चमकाने का आप ही के पास तो ताबीज है,
सुना है, आपके दूर-दूर के रिश्तेदार तक
निगम, मण्डल, बोर्ड, परिषद, पंचायतों में कुर्सी से चिपके हुए हैं,
इसके बावजूद भी आप मात्र अपने साले का एक टिकट नहीं मिलने पर पार्टी से नाराज हो बहक चुके है,
इतना कहकर हम भी सोचने लगे,
क्या राजनीति में गहराई तक पैठ जमा चुके इस परिवारवाद कभी नहीं अंत होगा,
लालचियों की भीड़ में क्या कोई नहीं सियासत का संत होगा,,।



*विवेक जगताप, राजबाड़ा चौक, धरमपुरी जिला धार(म.प्र.)मो.-95840909697000338116


 


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