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फुरसती(लघुकथा)


-माया  मालवेंन्द्र  बदेका

ना साज ना श्रृंगार ना घूमना ना और कोई शौक।

 

बस एक ही जुनून बस,कुछ शब्दों को मन से निकाल कर कागज पर उतारना, कुछ शब्दों को गुनगुनाना।

 

ना कोई ख्वाहिश ना कोई उड़ान,पर शब्दो को भी पंख लगते हैं।

धीरे धीरे उसके शब्दो की पहचान बनी। 

उसे अंचल से बहुत प्यार था,उसकी महत्ता समझती थी ,और वही उसके शब्दों में प्रतिबिम्बित होता। वह खो जाती खेत खलिहान,पंछी ,गाय, आमों की छांव ,नीम की निम्बोली, करौंदे,खजूर को बीनने में। लोकगीत की धुन पर थिरकना उसे महारास लगता। 

धीरे धीरे शब्दो की पहचान बनी पर हमेशा की तरह वहीं तिरस्कार।

 

घर में और बहुएं अपने अपने तरीके से व्यस्त थी, उन्हें ना उसके साहित्यिक मित्र सुहाते और ना लिखना। कभी किसी पुस्तक, पत्रिका में लेख रचना छपते तो उसका बहुत उपहास होता। बधाई की उसे अपेक्षा कभी नहीं रही लेकिन उसके लेखन का उपहास उससे सहन नहीं होता। 

हर समय यही ताना,फुरसती हो_"काम क्या है,?लिखना क्या बड़ी बात है कोई भी लिख सकता है"।

उसे कोई कहता की अरे वाह आपको पुरस्कार मिला है बधाई हो ,तब भी बधाई दाता के सम्मुख उपहास की_ "काम क्या है फुरसती है"।

 

बहुत हद उस दिन हो गई जब एक साहित्यिक सखी उससे घर मिलने आई । बहुत गुणी और बहुत विदुषी।

उसके जाते ही खुसुर फुसुर शुरू, कैसे कैसे मिलने वाले आ जाते हैं,कैसी दिख रही थी काली सी,कुछ ढंग नहीं।फालतू ही समय खराब करने आ जाते हैं।

 

तब उसे सहन नहीं हुआ।अपना अपमान हमेशा घर की खुशी के घूंट में पी लिया,पर साहित्य और उससे जुड़े लोगों का,जो समाज को एक सुसंस्कृत दिशा में ले जाने का प्रयास कर रहे हैं,उनका तो बिल्कुल नहीं। 

कुछ रिश्ते भावनात्मक तौर पर, आत्मिक तौर भी निभाये जाते हैं और उनका सम्मान ह्रदय स्वयं करता है।और उनका अपमान स्वयं का अपमान लगता है।वह बहुत दुखी होकर बोली_ "ठीक है, बेढंग है,फुरसती है,कुछ नही है,तो तुम जो उसने किया वही करके दिखा दो"!

अगर लेखन फुरसतिया है तो चार पंक्तियां लिखकर दिखा दो,जरा फुरसत पर ही लिख दो।

 

अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारा समाज सेवा कार्य ढंग का है, अगर तुम्हें लगता है कि बच्चों को पढ़ाना ढंग का कार्य है, अगर तुम्हें लगता है कि नृत्य करना ढंग का कार्य है तो फिर जो भी जिस क्षेत्र में हैं वह स्वयं उसमें परिपूर्ण है।

और इसी तरह में भी अपने में सम्पूर्ण हूं।

अपनी लेखनी और अपने शब्दों का अपमान और नहीं सहूंगी। कोई करे या न करे में अपने भावों से,अपने शब्दों को आत्मसात करती हूं।

कहकर वह चुप हो गई।

 

*माया  मालवेंन्द्र  बदेका,74 अलखधाम नगर.उज्जैन (मध्यप्रदेश)

 

 

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