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महिला सशक्तिकरण: मंजिल अभी दूर है(लेख)


-डॉ. साधना गुप्ता ,व्याख्याता


प्रजातन्त्र की सफलता तब तक अधूरी मानी जाएगी, जब तक स्त्रियों को मानवाधिकार प्राप्त नहीं होगा। कानून की पुस्तक में उन्हें यह अधिकार प्राप्त है। आवश्यकता पड़ने पर हम स्वतन्त्रता आन्दोलन के इतिहास में महिलाओं की भूमिका को रेखांकित करते हैं। महात्मागांधी और जवाहरलाल नेहरू ने भी समय - समय पर महिलाओं की सहभागिता की सराहना की है। नारी विमर्श की चर्चा ने नारी की भूमिका को रेखांकित कर ऊर्जावान बनाया परन्तु, क्या नारी को वह अधिकार मिल पाया है जो 10 दिसम्बर 1948 को अस्तित्व में आए मानवाधिकार के नैतिक दस्तावेज में कहा गया है। स्मरणीय है, - इसके अनुसार - ''बिना लैंगिक भेद-भाव के मानवाधिकार को सम्पूर्ण मानव जाति का अधिकार कहा गया है।''
इस प्रश्न की परख इस बात से ही जानी चाहिए कि नारी भयमुक्त होकर सम्मान खोए बगैर इच्छित लक्ष्य को पाने का प्रयास कर सके, अपने गन्तव्य को पा सकें। उसे स्वतन्त्र रहने का हक हो, सुरक्षा मिले, आर्थिक स्वावलम्बन के संग उसकी इच्छा-अनिच्छा एवं सुझाओं को परिवार, समाज एवं देश के स्तर - पर सम्मान मिले, योग्यता वृद्धि के अवसर मिलें, सम्पत्ति में अधिकार मिले, प्रतिदिन के एकरस कमरतोड़ कामों से राहत मिले एवं देश की प्रगति एवं गौरव वृद्धि में सहयोग के अवसर हो।
संक्षेप में समाज रूपी रथ के दोनों पहिए समान सबल एवं सुयोग्य होना आवश्यक है। यही सबलता एवं सुयोग्यता महिला सशाक्तिरण की वास्तविक पहचान होगी। इसके लिए हमें अभी काफी प्रयास करने हैं क्योंकि मंजिल अभी दूर है।
यद्यपि आज नारी सभी क्षेत्रों में पुरूषों से कन्धे से कंधा मिलाकर विकास के पथ पर बढ़ रही है पर प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचार हमें शर्मसार कर जाते हैं। निरन्तर होने वाली लैंगिक अनुपात में गिरावट हमारी महिला सशक्तिकरण की पोल खोल रही है। यहाँ आकड़े गिनाने के स्थान पर मैं फ्रांसीसी लेखिका ''सीमोन द बोउवार'' - का कथन रखना चाहूँगी - ''औरत पैदा नही होती बल्कि उसे बना दिया जाता है।'' इस वाक्य का सीधा अर्थ है भारतीय समाज में महिलाओं के प्रति एक विशेष प्रकार की मानसिकता पायी जाती है। वह जैसे - जैसे बड़ी होने लगती है, उसे परिवार द्वारा लड़की होने का एहसास कराया जाता है जिसके द्वारा उसे दोयम दर्जे का स्थान दिया जाता है। 
यद्यपि स्त्री उत्थान के लिए 19वीं शताब्दी में स्त्री शिक्षा, विधवा - विवाह इत्यादि आन्दोलन प्रारम्भ हुए, आजादी के आन्दोलन के समय कई नारी संगठन यथा - देश सेविका संघ, नारी सत्याग्रह समिति, महिला राष्ट्रीय संघ की स्थापना हुई। यहाँ तक कि 1975 में अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की घोषणा भी की गई। प्रयास निरन्तर जारी है पर फिर भी हम कहने को बाध्य हैं - ''मंजिल अभी दूर है''। क्योंकि एक प्रतिशत आकड़ों की लिस्ट से हम सम्पूर्ण महिलाओं के सशक्तिकरण की बात स्वीकार नहीं कर सकते। वर्तमान में महिला सशक्तिकरण की आवश्यकता में सबसे प्रमुख बाधायें अशिक्षा, बालिका भू्रण हत्या, लैंगिक असमानता, घरेलू हिंसा, आर्थिक परावलम्बन, अधिकारों एवं कर्तव्यों की जानकारी का अभाव, निर्णय लेने की प्रक्रिया में उनकी अवेहलना, पुरूष प्रधान समाज, चेतना का अभाव, हमारा सांस्कृतिक परिदृश्य एवं सर्वाधिक पीड़ा दायक तथ्य उनके प्रति बढ़ते यौन अपराध हैं। स़्ित्रयों के प्रति दुर्व्यवहार, शोषण और बलात्कार के आकड़ों में पिछले 25 वर्षों में कई गुना वृद्धि हुई है। यहाँ आकड़े गिनाने से काम नही चलेगा क्योंकि सामाजिक मर्यादा, छींटाकशी और तानों के चलते कितनी पीड़ित स्त्रियाँ न्याय का दरवाजा खटखटाती हैं ? - यह तथ्य किसी से छिपा नही है। 
अनुमान के अनुसार 75ः से अधिक भारतीय लड़कियाँ परिवार या विद्यालय में शारीरिक शोषण का शिकार होती है। न्याय की शरण लेने वाली स्त्रियाँ भी न्याय के नाम पर अपमान ही भोगती हैं। बलात्कार एवं छेड़छाड़ के अपराधी, सबूतों के अभाव में छूट जाते हैं। कामकाजी महिलाओं की दशा और अधिक दयनीय है। घरेलू स्त्रियों की ईर्ष्या की पात्र और घर-बाहर के दोहरे मोर्चो में संतुलन का प्रयास करती इन स्त्रियों में लगभग दो तिहाई ने कार्य स्थल पर, मार्ग अथवा अन्यत्र कहीं न कहीं यौन शोषण भोगा है। यह शोषण मात्र सामान्य नौकरियों में नहीं होता वरन् देश की सर्वोच्च समझी जाने वाली भारतीय प्रशासनिक सेवा भी इससे अछूती नहीं है। लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी की ओर से कराये गये सर्वेक्षण में 21.5 प्रतिशत महिला अधिकारियों ने कहा कि वे महसूस करती हैं - ''यौन शोषण की समस्या है''।
वर्तमान समय की बाजारवादी संस्कृति ने भी महिला की मानवीय गरिमा च्यूत कर उसे उत्पाद विक्रेता और देहदर्शना बना दिया है। अस्तु, इन सबसे ऊपर स्त्रियों को जो बात सर्वाधिक पीड़ित करती है, वह है उन्हें पुरूषों की सहगामिनी के स्थान पर अनुगामिनी मानने की पुरूष मानसिकता। अतः आवश्यकता वैधानिक के साथ - साथ व्यावहारिक समानाधिकार की है। सर्वप्रथम करणीय कर्म यह है कि सुधार संबंधी प्रक्रिया इतनी सरल हो कि निम्न शैक्षिक सामाजिक स्तर की पीड़िताएँ भी आसानी से न्याय प्राप्त कर सकें। समाचारों के साथ-साथ मनोरंजन परोसने वाले विभिन्न टेलीविजन चैनलों, समाचार - पत्रों तथा सरकारी, गैर सरकारी शिक्षण संस्थाओं द्वारा समाज सेवा को अनिवार्य किया जाय। जिससे पीड़िता को पास में सरल न्यायिक सुविधा प्राप्त हो सके और वह अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो सकें। इससे उसमें आत्मविश्वास जाग्रत होगा। यहाँ हम ध्यान आकृष्ट करना चाहेंगे- ''दिल्ली डोमेस्टिक वर्किंग वीमेंन्स फोरस बनाम भारत सरकार'' के वाद में माननीय उच्च न्यायालय ने उत्पीड़ित महिलाओं के अधिकारों के हितों को बढ़ावा देने के लिए क्षतिपूर्ति देने का निर्देश जारी किया। जो महिला सशक्तिकरण के इतिहास में प्रथम निर्देश है। यह क्षतिपूर्ति एवं पुनर्वास से संबंधित होने के कारण अधिक महत्वपूर्ण है। यहाँ में ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगी कि इन सम्पूर्ण कानूनी प्रावधानों की स्थिति मंजिल तक पहुँचने के लिए सीड़ी के समान है, चढ़ना तो स्वयं महिला को ही होगा। एक बार यदि वे अपने मूल्य और प्रतिष्ठा के प्रति जागरूक हो जाएगी और निश्चित दृढ़ प्रतिज्ञ होकर आगे बढ़े, अपने विरोध में उठने वाली आवाज का संगठित हो मुकाबला करें तो वे समाज को समृद्ध बनाने के साथ - साथ स्वयं को पूर्ण रूप से सशक्त कर सकती है। इसके लिए महिलाओं को स्वयं आगे आना होगा और जन आन्दोलन छेड़ना होगा एवं समाज में जन चेतना द्वारा इसकी परम्पराओं एवं रूढ़ियों में परिवर्तन लाना होगा। देश को भी कथनी और करनी में अन्तर की परम्परा को छोड़कर ऐसे कार्य करने होगे जिससे की समाज के प्रत्येक घटको के साथ - साथ राष्ट्र एवं समाज का समग्र विकास हो सकें। 
अन्त में केवल इतना कि राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में महिला साक्षरता, महिला आत्मनिर्भरता, स्वास्थ्य रक्षा, घरेलू हिंसा के क्षेत्र में अपेक्षित प्रतिरोध एवं आत्मसुरक्षा के प्रशिक्षण द्वारा ही विकास के आयामों को प्राप्त किया जा सकता है। बशर्त उसे स्वयं मानसिक जड़त्व की स्थिति से बाहर आना होगा और प्रस्थिति के अनुसार कभी दुर्गा, कभी चण्डी, कभी काली तो कभी सीता बनना होगा। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु राष्ट्रीय महिला आयोग के तत्वावधान में आयोजित - ''विजयफार वीमेन ऑफ टुमारो'' के परिचर्चा सत्र में पूर्व राष्ट्रपति माननीय ''ए.पी.जे.अब्दुल कलाम'' ने अपेक्षा की थी कि ''महिलाओं को महानता की अनुभूति करवायी जाऐ, जिससे उनका मनोबल ऊँचा होगा''। इस मनोबल द्वारा भारतीय नारी अपने वर्चस्व को सम्पूर्ण विश्व में फैला सकेगी। मुझे पूर्ण विश्वास है चलती गाड़ी के पहिए बदलने के समान इस प्रयास में हम अवश्य सफल होगें क्योंकि वर्षो से खामोश पड़ी ठंडी शिलाओं की गर्मी से ही लावा निकलता है। परन्तु आज तो हमें कहना ही होगा - ''मंजिल अभी दूर है।''



-डॉ. साधना गुप्ता, व्याख्याता 
राज.स्नातकोत्तर महाविद्यालय, झालावाड़
द्वारा:- के.एल.गुप्ता 'एडवोकेट'
मंगलपुरा टेक, झालावाड़ (राज.)
मो- 09530350325


 


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