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इज्जत(लघुकथा)


*अनुभा जैन*


हमेशा की तरह, अनिल के ऑफिस से आते ही ,अम्मा जी ने अपना पुराना राग शुरू कर दिया । मेरी तो मत मारी गई थी।जो यहां तेरे पास शहर में चली आई । अरे वो तो चाहती ही नहीं कि मैं यहां सुख से दो रोटी खा सकूं । यहां आकर तो मैं सौ-सौ आंसू रो रही हूं । हे राम ! मेरा तो बुढ़ापा ही खराब हो गया है, इस औरत के चक्कर में ।
अनिल को चुप देख कर ,अम्मा जी और  गुस्से में बोली, मैं भी किससे कह रही हूं ,जो इस कान से सुनता है और उस कान से उड़ा देता है । दीपक को देख, एक बार जीजी से बहू ने तेज आवाज में बात की तो उसने तो एक झापड़ ही जड़ दिया था। उस दिन अकल ठिकाने आ गई थी ,मैडम जी की। मां आखिर मां होती है। 
तभी अनिल अचानक खड़ा हो गया और बोला आप सही कह रही हो अम्मा ! मां आखिर  मां होती है  उसका सम्मान और आदर होना ही चाहिए। लेकिन पत्नी भी तो अर्धांगिनी होती है। क्या उसका कोई सम्मान नहीं होता?  जो और अपनी पत्नी पर हाथ उठाते हैं, मैं तो उन्हें इंसान भी नहीं समझता और आप उन्हें आदर्श बेटा मानती हैं। मुझसे ऐसी उम्मीद कभी ना रखिएगा। इस तरह का काम ना ही मेरे पिता ने किया और ना ही मैं करूंगा। एक घर में दो बर्तन होते हैं तो खनकते ही है। छोटी- छोटी बातों का बड़ा विवाद मत बनाइए। अगर मैंने जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा आपके साथ बिताया है तो पिछले 10 साल से मैं उसके साथ भी रह रहा हूं। और मुझे विश्वास है कि वो आपको कभी परेशान नहीं कर सकती ।आपका बहुत ध्यान रखती है,आपकी परवाह करती है।बस आप अपना नजरिया बदल कर देखिए अम्मा ! सब ठीक हो जाएगा।
अनु चाय बनाते हुए सब सुन रही थी। उसकी आंखों में आंसू थे ।आज उसकी नजरों में अनिल की इज्जत और बढ़ गई थी।
          
*अनुभा जैन इंदौर*


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